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________________ स्वभाव की पहचान ६ भी समझ पा सकता है। इस सूत्र में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं, क्रमशः उन्हें हम समझें । अर्जुन ने कहा, हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। अर्जुन ने इस सूत्र के पहले कहा कि आप जो भी कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। अगर अर्जुन यह कहे कि उसे मैं सत्य जानता हूं, तो वह बेईमानी हो जाएगी। उसने कहा, मैं सत्य मानता हूं। यह ईमानदार वक्तव्य है। उसने यह नहीं कहा कि ऐसा मैं जानता हूं। उसने इतना ही कहा है कि आप जो कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। मेरी चेष्टा है, मेरा प्रयत्न है, मेरा भाव है। यह सत्य हो, यह सत्य होना चाहिए, ऐसी मेरी आकांक्षा है। चाहता हूं कि आप जो भी कहते हैं, वह सत्य हो । मानता हूं कि वह सत्य है। लेकिन अर्जुन को इस कहते क्षण में भी शायद भीतर की उस दूसरी पर्त का भी अनुभव हुआ होगा कि यह मैं जानता नहीं हूं। इसलिए उसने इस वक्तव्य में बहुत गहरी बात कही है। उसने कहा है कि आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। मैं चाहूं भी जानना, तो कैसे जान सकता हूं! मैं कहूं भी कि जानता असत्य होगा। आप अपने से ही अपने को जानते हैं। वह इस वक्तव्य के कई आयाम हैं। जगत में दो तरह की चीजें हैं। एक तो वे चीजें हैं, जो पर - प्रकाशित है। हम यहां बैठे हैं। अगर बिजली का प्रकाश बंद हो जाए, तो मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा, आप मुझे दिखाई नहीं पड़ेंगे। आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, आपके होने की वजह से ही नहीं । आपका होना जरूरी है, लेकिन काफी नहीं। प्रकाश भी चाहिए, तो आप मुझे दिखाई पड़ते हैं। आप हों और प्रकाश न हो, तो आप मुझे | दिखाई न पड़ेंगे। आपके दिखाई पड़ने में आपकी मौजूदगी जरूरी है, और प्रकाश भी जरूरी है। क्योंकि प्रकाश होगा, तो ही आप दिखाई पड़ेंगे। आप प्रकाश से प्रकाशित होंगे, तो ही दिखाई पड़ेंगे। मैं भी दिखाई आपको नहीं पडूंगा, प्रकाश नहीं होगा तो । गहन अंधकार छा जाए यहां, फिर कोई किसी दूसरे को दिखाई नहीं पड़ेगा। दूसरा पर - प्रकाशित है। दूसरे को देखने, जानने के लिए एक और प्रकाश की जरूरत है। लेकिन कितना ही अंधेरा हो जाए, आप अपने को तो मालूम पड़ते ही रहेंगे। कितना ही गहन अंधेरा हो जाए, क्या इतना अंधेरा भी हो सकता है कि मैं खुद कहूं कि अब मुझे अपना पता नहीं चलता, अंधेरा बहुत ज्यादा है! आप मुझे पता नहीं चलेंगे; आपको पता नहीं चलूंगा। लेकिन मैं स्वयं को पता चलता रहूंगा; | आप स्वयं को पता चलते रहेंगे। तो आपके स्वयं के होने की जो प्रतीति है, उसके लिए किसी दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं है; आपका होना काफी है। एक बहुत प्रसिद्ध सूफी हसन के जीवन में उल्लेख है कि वह अपने गुरु के पास गया। दो और मित्र उसके साथ सत्य की खोज पर निकले थे। वे तीनों अपने गुरु के पास गए। उन तीनों ने कहा कि हम जानना चाहते हैं, आत्मा क्या है? उनका गुरु उस समय कबूतरों को दाने डाल रहा था। उसने एक-एक कबूतर पकड़कर तीनों को दे दिया और उन तीनों से कहा कि तुम ऐसी जगह जाओ जहां कोई देखता न हो, और कबूतर की गर्दन मरोड़कर आ जाओ; मार डालो। फिर पीछे हम आगे की खोज पर चलेंगे। यह तुम्हारा पहला पाठ ! 79 एक युवक सीढ़ियों से नीचे उतरा। पास की गली में गया। देखा, कोई भी नहीं है। कबूतर को मरोड़ा और वापस आ गया। दूसरा युवक खोजबीन किया। गली में गया। लेकिन उसे लगा कि प्रकाश है और मैं मरोडूं, और तभी कोई खिड़की से झांककर देख ले, या | अचानक कोई गली में आ जाए, तो रात तक रुकूं, अंधेरा हो जाने दूं। रात अंधेरा जब हो गया, तब वह एक गली में गया और उसने कबूतर की गर्दन मरोड़ दी और रात आकर गुरु के चरणों में कबूतर रख दिया। लेकिन हसन, तीसरे युवक का तीन दिन तक कोई पता न | चला। दोनों मित्र राह देखते हैं, गुरु राह देखता है। तीसरे दिन गुरु ने उन दोनों को कहा कि अब तुम हसन को खोजकर लाओ कि वह कहां है ! हसन ने सब तरह की कोशिश की। गली में जाकर देखा । लगा, कोई भी देख लेगा। अंधेरे में जाकर देखा । गहन अंधेरे में गया, तो भी कबूतर की आंखें ! जब भी कबूतर को मरोड़ने जाता, कबूतर की आंखें अंधेरे में भी उसे दिखाई पड़तीं। तो उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और कबूतर की आंखों पर भी पट्टी बांध दी और | एक तलघरे में उतर गया, जहां गहन अंधेरा था । और जब उसने | कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा, तब उसे खयाल आया, कोई न | देखता हो, लेकिन मैं तो जान ही रहा हूं, मैं तो देख ही रहा हूं। तीन दिन बाद उसके साथी उसे पकड़कर लाए। उसने 'कबूतर गुरु के चरणों में रख दिया। और उसने कहा कि क्षमा करें, यह काम
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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