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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । अपने संबंध में कुछ धारणाएं, कुछ प्रतिमाएं बना रखी हैं। और भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ।। १५ ।। अगर हम अपने प्रति ईमानदार हों, तो हमारी ही निर्मित प्रतिमाएं वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । हमारे हाथों ही खंडित हो जाती हैं। हम जो भी अपने को समझते याभिर्विभूतिमिलोंकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि । । १६ ।। हैं, वह हम हैं नहीं। हम जो भी अपने को मानते हैं, उससे हमारा कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । दूर का भी संबंध नहीं है। और जो हम हैं, वह इतना पीड़ादायी है केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया । । १७ ।। कि उसे देखने की हिम्मत भी हम नहीं जुटा पाते हैं। जो हमारी हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के वास्तविकता है, जो हमारा यथार्थ है, उसको हम आंख गड़ाकर देव,हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने देखने का भी साहस नहीं रखते हैं। से आपको जानते हैं। और धार्मिक जीवन का प्रारंभ तो उसी व्यक्ति का हो सकेगा, इसलिए हे भगवन्, आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को | जो अपने प्रति ईमानदार है, जो अपने यथार्थ को जानने का साहस संपूर्णता से कहने के लिए योग्य हैं, जिनं विभूतियों के द्वारा | जुटा पाता है। जो जैसा है, वैसा ही अपने को उघाड़कर देख सकता - इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित है। । है। चाहे हो कितना ही विकृत, और चाहे कितना ही हो गहन हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ | अंधेरा, और चाहे कितने ही रोग हों भीतर, और चाहे कितनी ही हो आपको जानूं और हे भगवन्, आप किन-किन भावों में मेरे विक्षिप्तता, लेकिन जो उस सबको शांत भाव से देखने को तैयार द्वारा चिंतन करने योग्य है। है, स्वीकार करने को कि ऐसा मैं हूं, वही व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। अपने प्रति ईमानदारी धार्मिक व्यक्ति का पहला कदम है। अर्जुन जटिल है, उलझा हुआ है। जैसा कि कोई भी मनुष्य 27 र्जुन का मन हो कितना ही जटिल, कितनी ही हों द्वंद्व | जटिल है और उलझा हुआ है। मनुष्य होने के साथ ही वैसी 1 की पर्ते भीतर, पर अर्जुन सरल व्यक्तित्व है। जटिलता | | जटिलता अनिवार्य है। लेकिन अर्जुन उसे छिपाने को आतुर नहीं है बहुत, लेकिन अपनी जटिलता के प्रति किसी धोखे है। जानकर उसे भुलाने की भी उसकी चेष्टा नहीं है। अनजाने में अर्जुन नहीं है। और अपनी जटिलता को भी प्रकट करने में स्पष्ट जटिलता है, लेकिन जानकर अर्जुन उससे मुक्त होने के लिए भी और ईमानदार है। शायद यही उसकी योग्यता है कि कृष्ण का संदेश आतुर है। न उसे खुद भी पता चलता हो, लेकिन अपने प्रति वह उसे उपलब्ध हो सका। विनम्र है। और जो भी उसके भीतर हो रहा है, वह उसे कृष्ण से कहे बीमार भी होते हैं हम, तो भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। चला जाता है। बीमारी को भी छिपाते हैं। और जो बीमारी को भी स्वीकार न करता इस सूत्र में कुछ बातें उसने बड़े मूल्य की कही हैं। साधक की हो, उसके स्वस्थ होने की संभावना बहुत कम हो जाती है। क्योंकि | तरफ से समझने योग्य! जो खोजने निकलते हैं परमात्मा को, उनके जिसे मिटाना है, उसे स्वीकार करना जरूरी है। और जिसे मिटाना। | लिए बहुत मूल्य की! है, उसे ठीक से पहचानना भी जरूरी है। जिससे मुक्त होना है, उसे कई बार तो ऐसा हो सकता है कि कृष्ण का वचन भी उतना जाने बिना मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। | मूल्यवान न हो। क्योंकि कृष्ण का वचन तो आत्यंतिक है, अंतिम दो तरह की ईमानदारियां हैं। एक ईमानदारी है, जो हम दूसरों के है। जब हम पहुंचेंगे, तब हम उसे जानेंगे। ऐसा हो सकता है कि प्रति रखते हैं। वह ईमानदारी बहुत बड़ी ईमानदारी नहीं है; बहुत बार अर्जुन का वक्तव्य बहुत कीमती हो, कृष्ण से भी ज्यादा कामचलाऊ है, ऊपरी है। एक और ईमानदारी है गहरी, जो व्यक्ति कीमती हो, हमारे लिए। सत्य उतना नहीं है वह, जितना कृष्ण का अपने प्रति रखता है। वह ईमानदारी खोजनी बड़ी मुश्किल है। | वक्तव्य होगा। न वह आत्यंतिक कोई अनुभूति है, लेकिन अर्जुन पहली ईमानदारी ही खोजनी बहुत मुश्किल है, दूसरी तो और भी | | जहां खड़ा है, वहीं हम सब खड़े हैं। तो अर्जुन को समझ लेना, मुश्किल है। उसके वक्तव्य को समझ लेना, खुद को समझने के लिए बहुत अपने प्रति ईमानदार होना बड़ा कठिन है, क्योंकि हम सबने कीमती है। और खुद को जो समझ ले, वह किसी दिन कृष्ण को
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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