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8 गीता दर्शन भाग-500
हो नहीं सकता। क्योंकि कहीं भी मैं जाऊं, मैं तो देखता ही रहूंगा। निरीक्षण कर सकें, वही वैज्ञानिक तथ्य हो सकेगा। तब फिर जो
और यह भी हो सकता है कि मैं भी न देखें, लेकिन कबूतर तो | | निरीक्षण करता है, वह कभी भी वैज्ञानिक तथ्य नहीं हो सकता। मौजूद रहेगा ही। ऐसा भी कोई उपाय हो सकता है कि मैं बहुत दूर परिभाषा ने ही वर्जित कर दिया। हट जाऊं; कबूतर के गले में रस्सी बांध दूं; तलघरे में लटका दूं; | | वे कहते हैं, जिस पर हम प्रयोग कर सकें, उसको ही हम तथ्य मैं पार निकल जाऊं और वहां से रस्सी खींचकर उसकी गर्दन दबा | | मानेंगे। लेकिन जो प्रयोग करता है, उसका हम क्या करें! निश्चित दूं। लेकिन कबूतर तो कम से कम, एक गवाह तो रहेगा ही। तो मैं | | ही, जब प्रयोग होता है, तो कोई प्रयोग भी करता है। और जब ऐसी कोई जगह नहीं खोज पाया, जहां कोई भी गवाह न हो। मुझे | निरीक्षण होता है, तो कोई निरीक्षक भी है। और जब आब्जर्वेशन हो आप क्षमा कर दें। मैं इस पहले पाठ में असफल हुआ। रहा है, तो कोई आब्जर्वर भी है। लेकिन विज्ञान कहता है कि जब
उसके गुरु ने कहा, तुम ही सफल हुए हो। तुम्हारे दो साथी तक हम टेबल पर सामने रखकर निर्णय न ले सकें, निष्कर्ष न ले असफल हो गए हैं। और अब तुम्हारा दूसरा पाठ शुरू होगा। | सकें, विश्लेषण न कर सकें, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है। तुम्हारे दो साथियों को मैं विदा कर देता हूं। उसके गुरु ने कहा कि अगर यह ही विज्ञान की परिभाषा रहने को है, तो फिर हम आत्मज्ञान की दिशा में पहला पाठ यही है कि आत्म-ज्ञान | आत्मा के संबंध में कभी भी विज्ञान निर्मित न कर पाएंगे, और स्व-प्रकाशित है। चाहे कुछ भी करो, स्वयं को जानने को भुलाया | विज्ञान कभी आत्मा के सत्य की घोषणा न कर पाएगा। या तो हमें नहीं जा सकता। एक तो मौजूद रह ही जाएगा। और यह सूत्र तुम्हारे | विज्ञान की परिभाषा बढ़ानी होगी और विज्ञान की परिभाषा में यह खयाल में आ गया है।
भी सम्मिलित करना होगा कि जो जाना जाता है वही नहीं, जो आत्मा स्व-प्रकाशित है। पदार्थ पर-प्रकाशित है और चेतना जानता है वह भी, उसका भी अस्तित्व है। स्व-प्रकाशित है। ये दो अस्तित्व हैं, जो हमें दिखाई पड़ते हैं। चेतना अर्जुन कृष्ण से कह रहा है कि आप ही आपको जानते हैं। के लिए किसी और के जानने की जरूरत नहीं; चेतना स्वयं को ही ___ कृष्ण का अर्थ हुआ, परम चैतन्य, चेतना की शुद्धतम अवस्था। जानती है।
| तो अर्जुन कहता है, मैं उसे जानूं भी तो कैसे जानूं? मेरे ज्ञान से आप ऐसा ही समझें कि एक दीया जल रहा है। दीया जलता है, तो सारे | | नहीं जाने जा सकते। आप तो स्वयं ही प्रकाशित हैं, और आप ही कमरे को प्रकाशित करता है। दीया बुझ जाए, तो कमरा दिखाई नहीं | अपने को जानने वाले हैं। मैं आपको कैसे जानूं? और मैं अगर पड़ता। लेकिन दीया जलता है, तो अपने को भी प्रकाशित करता है। आपको जानूं भी, तो आपका शरीर ही जान पाता हूं; आपका उस दीए को जानने के लिए किसी दूसरे दीए की जरूरत नहीं पड़ती। | पदार्थगत हिस्सा ही दिखाई पड़ता है। आपकी वाणी सुनाई पड़ती चेतना अपने को ही जानती और अनुभव करती है। और सब चीजों है; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो बोलता है। आपकी आंखें दिखाई को जानने के लिए किसी और की जरूरत पड़ती है।
पड़ती हैं; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो आंखों से देखता है। आपका रण आत्मा का कोई विज्ञान नहीं बन पाता। इसे थोडा हाथ अपने हाथ में ले लेता है। लेकिन हाथ तो पदार्थ है। वह मेरी समझ लें।
पकड़ में नहीं आता, जो हाथ के भीतर जीवन है। मैं आपको सब इसी कारण वैज्ञानिक चिंतक आत्मा को स्वीकार नहीं कर पाते। | तरफ से पहचान लेता हूं, लेकिन यह पहचान बाहरी है। मैं कितना क्योंकि वे कहते हैं कि जब तक हम आब्जर्व न करें, निरीक्षण न ही आपको जानता रहूं, यह जानना आपके आस-पास है। लेकिन करें, प्रयोग न करें, तब तक हम कैसे माने कि आत्मा है! और जब | आप चूक जाते हैं। आप तक मैं नहीं पहुंच पाता हूं। आप मेरी पकड़ भी हम निरीक्षण करते हैं किसी वस्तु का, तो वह पदार्थ होती है। | के बाहर रह जाते हैं। आप तो अपने को ही जानते हैं। आप ही अपने जो निरीक्षण करता है, वह आत्मा होता है। और जो निरीक्षण करता को जानते हैं। मैं आपको कैसे जान सकता हूं! . . है, उसका निरीक्षण करने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए भक्तों ने कहा है, ज्ञानियों ने कहा है कि परमात्मा को इसलिए वैज्ञानिक आत्मा को स्वीकार करने को राजी नहीं हो तब तक नहीं जाना जा सकता, जब तक आप स्वयं परमात्मा न हो पाते। उनकी अपनी मजबूरी है। उन्होंने विज्ञान की जो परिभाषा जाएं। परमात्मा होकर ही उसे जाना जा सकता है। स्वीकार की है, उसी परिभाषा ने सीमा बना दी है। वे जिसका | इससे एक दूसरी बात भी खयाल में ले लें।