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________________ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन हैं किसी बुद्धि को मानने के लिए। अर्जुन ने जो उत्तर दिया, इसलिए बहुत सोचने जैसा है। इस प्रकार कृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन ने कहा, हे भगवन्, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं। आपको ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी ऐसी ही घोषणा मेरे प्रति करते हैं। और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। ठीक ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन ने सब कुछ स्वीकार कर लिया। काश, अर्जुन यह सब कुछ स्वीकार कर ले, तो गीता यहीं समाप्त हो जाती; आगे गीता निष्प्रयोजन है। फिर कहने को कुछ और बचता नहीं, और समझाने को भी कुछ बचता नहीं । आखिरी बात पूरी हो गई । अल्टिमेट, जो आत्यंतिक घटना घटनी चाहिए अर्जुन के भीतर, वह घट गई। लेकिन गीता समाप्त नहीं | होती है और कृष्ण को और भी श्रम लेना पड़ता है। यह वक्तव्य जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं होगा, इसीलिए। इसमें तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं। अर्जुन कहता है कि आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र हैं, क्योंकि ऐसा ही ऋषियों ने भी कहा है, महर्षियों ने भी कहा है। अर्जुन को अभी भी यह सीधी प्रतीति नहीं है। अभी भी गवाह की जरूरत है; साक्षी की, विटनेस की जरूरत है। अर्जुन मानता है, क्योंकि सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, . अजन्मा और सर्वव्यापी आपको स्वीकार करते हैं। देवऋषि नारद — ये बड़े नाम हैं; उस युग के बड़े नाम हैं— असित और देवल और महर्षि व्यास, और इतना ही नहीं, आप स्वयं भी मेरे प्रति ऐसा ही कहते हैं। ध्यान रहे, जब भी हमें साक्षी की, गवाह की जरूरत पड़ती है, तो उसका अर्थ होता है, सत्य का साक्षात्कार सीधा नहीं है। अर्जुन यह नहीं कहता कि ऐसा मैं अनुभव करता हूं। अर्जुन कहता है, जिनकी बात मानी जा सके, वे भी ऐसा ही कहते हैं । अर्जुन कहता है, आप जो कह रहे हैं, वह प्रामाणिक मालूम पड़ता है; क्योंकि जो भी विचारशील हैं, जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने भी ऐसा ही कहा है । यह इमीजिएट, यह सीधा-सीधा अनुभव नहीं है। कहीं ऐसा अगर हो कि महर्षि व्यास ऐसा न कहें, और देवल और असित 65 इनकार कर दें, और नारद कह दें कि नहीं, ये कृष्ण भगवान नहीं हैं, तो अर्जुन की क्या गति हो? तो अर्जुन डांवाडोल हो जाए। उसका सत्य, उसका अपना सत्य नहीं है, गवाहों का सत्य है । किन्हीं की गवाही पर वह अपनी मान्यता को निर्धारित कर रहा है। गवाही बहुत मजबूत है। साधारण आदमी की यही मनोदशा है। उसके पास अपना कोई | सत्य नहीं होता । कोई और कहता है, तो वह मान लेता है । कोई और बदल जाएगा कल, तो वह भी बदल जाएगा। लेकिन महर्षि व्यास जो कहते हैं, वह सत्य कहते हैं, यह अर्जुन कैसे जानेगा ! बड़ी मजे की बात है। तब अर्जुन खोजेगा कि और कौन-कौन ऋषि हैं, जो महर्षि व्यास को महर्षि मानते हैं! वह भी निर्भर करेगा किसी गवाही पर । यह तो इनफिनिट रिग्रेस है, इसमें तो कहीं कोई उपाय नहीं हो सकता। अ को आप मानते हैं, क्योंकि ब कहता है। ब को आप मानते हैं, क्योंकि स कहता है । स को आप मानते हैं, क्योंकि द कहता है। लेकिन आप दूसरे पर निर्भर हैं। और जो मान्यता दूसरे पर निर्भर है, वह कभी भी गहरी नहीं हो सकती। क्योंकि जब कृष्ण को सीधा सामने पाकर सीधा नहीं माना जा सकता, तो महर्षि व्यास के वक्तव्य को कैसे गहरे में माना जा सकता है ? कृष्ण सामने खड़े हैं—यह बहुत मजे की बात है - यह ऐसी स्थिति है कि अंधा सूरज के सामने खड़ा हो और कहे कि हां, मैं मानता हूं कि तुम सूरज हो और तुममें प्रकाश है, क्योंकि अ ने भी ऐसा कहा है, ब ने भी ऐसा कहा है, स ने भी ऐसा कहा है ! बड़े-बड़े ज्ञानी भी यही कहते हैं कि सूरज में प्रकाश है; और तुम भी मेरे प्रति कहते हो कि तुम प्रकाशवान हो ! लेकिन अंधे को खुद दिखाई नहीं पड़ रहा। क्योंकि अगर अंधे को खुद दिखाई पड़ता हो, तो गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य के लिए गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। केवल असत्य के लिए गवाही की जरूरत पड़ती है। सत्य तो स्वयं ही अपनी गवाही है। और अगर सत्य स्वयं अपनी गवाही नहीं दे सकता, तो फिर और कौन उसकी गवाही दे सकेगा? अर्जुन को प्रतीति सीधी नहीं है। अर्जुन अभिभूत है, प्रभावित है, लेकिन बड़े गवाहों के नाम से; सीधे कृष्ण से नहीं। अगर उसे पता चल जाए कि महर्षि व्यास ने नहीं कहा है ऐसा, तो उसके सब आधार डगमगा जाएं, उसकी श्रद्धा का पूरा भवन गिर जाए। दूसरे की गवाही पर निर्भर जो भी व्यक्ति जीता है, वह बहुत
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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