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गीता दर्शन भाग-500
अर्जुन उवाच
| क्वालिटेटिव हो जाता है। वह फिर गुण का अंतर है। फिर वह परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । | परिमाण और मात्रा का भेद नहीं है। फिर हमारे और उसके बीच पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। १२ ।। कोई सेतु, कोई संबंध नहीं है। वह दूसरे ही लोक का अस्तित्व है।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षि रदस्तथा। हमारे और उसके बीच एक अलंघ्य खाई है। असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। १३ ।। ___ इसलिए किसी व्यक्ति को महामानव मान लेने में अड़चन नहीं
___ सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। . है, महात्मा मान लेने में अड़चन नहीं है। हमसे संबंध नहीं टूटता। नहि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ।। १४ ।। हमारे ही रास्ते पर कोई हमसे दो कदम आगे होता है, कोई दस इस प्रकार श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला,हे कदम आगे होता है। अहंकार को तकलीफ होती है इसमें भी कि भगवन, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र है, | किसी को मैं आगे मानूं! लेकिन फिर भी अहंकार इससे नष्ट नहीं क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों | होता। हम किसी को अपने से आगे मान सकते हैं। का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं, वैसे ही कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपने से किसी को आगे मानने देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि । में भी अहंकार को तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति जरा सूक्ष्म है। जिसे व्यास और स्वयं आप भी ऐसा मेरे प्रति कहते हैं। । | हम अपने से आगे मानते हैं, यह मानने के कारण ही हम उससे
और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस ।। | संयुक्त हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम उसको समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन, आपके लीलामय | पहचानने वाले हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम भी स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। | अपने भविष्य में कभी उस जैसा होने की संभावना का अहंकार
पोषित कर सकते हैं।
लेकिन किसी व्यक्ति को ईश्वर मानने में हमारी सारी - ष्ण ने जो भी अर्जुन को कहा, वह बुद्धि से मानने जैसा तर्क-सरणी टूट जाती है, हमारी सारी अंतर्व्यवस्था अस्तव्यस्त हो पा नहीं है; तर्क उसके विरोध में जाएगा, विचार उस पर | जाती है। ईश्वर मानने का अर्थ ही यह हुआ कि वह हमसे बिलकुल ८ संदेह करेंगे। अहंकार अस्वीकार करना चाहेगा उस | | भिन्न है। भिन्नता इतनी गहरी है कि हम उसे समझ भी नहीं पा सकते सबको। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा है, उससे ज्यादा कठिन बात, कि वह क्या है। अहंकार को मानना, दूसरी नहीं हो सकती।
कृष्ण ने जो भी कहा है, वह असंभव है। असंभव है बुद्धि के कृष्ण भी वैसे ही हड्डी, मांस, मज्जा से बने हैं, जैसे हड्डी, मांस, लिए। अर्जुन उसके उत्तर में जो कह रहा है, वह बहुत सोचने जैसा मज्जा से अर्जुन बना है। कृष्ण को भी वैसे ही भूख लगती है, जैसी | | है। और जैसा ऊपर से दिखाई पड़ता है, वैसा उसका अर्थ नहीं है। अर्जुन को लगती है। कृष्ण भी वैसे ही थकते हैं और विश्राम करते | | और जैसा भी आपको अर्थ दिखाई पड़ता रहा होगा, थोड़ा गहरे हैं, जैसा अर्जुन थकता है और विश्राम करता है। कृष्ण को अर्जुन | | उतरेंगे, तो उससे बिलकुल विपरीत अर्थ पाएंगे। मान सकता है महामानव सरलता से, लेकिन ईश्वर मानने में बड़ी अर्जुन ने कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर कि मैं परमात्मा हूं; मैं कठिनाई है। ईश्वर मानने का अर्थ ही ठीक से हम समझ लें, तो | | ही सबमें व्याप्त हूं; सब कुछ मेरे ही द्वारा धारण किया गया है। कठिनाई भी समझ में आ जाए।
| समस्त ऋषियों में मेरे ही भाव प्रकट हुए हैं; और समस्त श्रेष्ठताओं जब हम एक किसी व्यक्ति को महामानव मानते हैं, तो भी हम | और समस्त शक्तियों का मैं ही आधार और बीज है; और जहां भी अपने और उसके बीच जो अंतर देखते हैं, वह क्वांटिटी का, | | जीवन में कोई सुगंध ऊंचाई छूती है, और जब भी कोई शिखर डिग्रीज का, क्रम का, परिमाण का है। हमारे जैसा ही, हमारे ही गौरीशंकर होता है, तब उस श्रेष्ठता की अंतिम स्थिति में जो आयाम में, हमसे थोड़ा ज्यादा। लेकिन जैसे ही हम किसी व्यक्ति खिलता है, जो फूल खिलता है, वह मैं ही हूं। मैं ही इस जीवन का को भगवान मानते हैं, हमारा उससे सब संबंध टूट जाता है। और आभिजात्य, मैं ही इस जीवन का रस, मैं ही इस जीवन का प्राण, हमारे और उसके बीच जो अंतर है, वह क्वांटिटेटिव नहीं, मैं ही इस जीवन का केंद्र हूं। ये बातें कृष्ण ने कहीं, जो बड़ी असंभव
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