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________________ गीता दर्शन भाग-5 दरिद्र है, उसके पास सीधी देखने की आंख नहीं है। एक बात । दूसरी बात ; अर्जुन कृष्ण को प्रेम करता है, यह जरूर सच है। और प्रेम करता है इसीलिए उसने, अर्जुन ने उन लोगों की गवाहियां चुन ली हैं, जो कृष्ण भगवान कहते हैं। अगर अर्जुन कृष्ण को प्रेम न करे, तो वह दूसरे गवाह चुनेगा, जो भगवान कृष्ण को नहीं कहते। और ऐसा नहीं है कि दूसरे गवाह नहीं हैं। कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ जैनियों के तीर्थंकर हैं। वे जैन-दीक्षा लेकर जैन संन्यासी हो गए थे। और फिर जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक स्थान पर पहुंच गए। लेकिन आप जानकर हैरान होंगे कि जैन मानते हैं कि कृष्ण ने इतना पाप किया और करवाया कि वे सातवें नर्क में सड़ रहे हैं ! बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। जैनों की दृष्टि से बात में थोड़ा मजा है, सोचने जैसा मजा है। क्योंकि जैन यह कहते हैं कि अर्जुन तो भाग रहा था और अहिंसक होना चाहता था। कहता था, नहीं करूंगा युद्ध । इन अपने लोगों को काटने से क्या है सार? और धन भी पाकर क्या मिलेगा? और राज्य भी मिल गया, तो क्या होगा? वह तो विरत हो रहा था, विराग जग रहा था। वह तो छोड़कर जा रहा था युद्ध को। वह तो संन्यास, त्याग, पलायन में प्रवेश कर रहा था। लेकिन कृष्ण ने उसे समझा-बुझाकर युद्ध में जूझने को राजी कर लिया। निश्चित ही, महाभारत का अगर कोई भी पाप है, तो कृष्ण के नाम जाएगा, अर्जुन के नाम नहीं जा सकता – अगर कोई पाप है। अर्जुन तो भाग ही रहा था। यह गीता अर्जुन को समझाने के लिए कृष्ण ने कही है कि वह युद्ध में खड़ा रहे ; भागे न। अगर कोई पुण्य है, तो वह कृष्ण के नाम जाएगा; अगर कोई पाप है, तो कृष्ण के नाम जाएगा। अब यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उसे पुण्य मानें या पाप मानें। जैनों की दृष्टि में चूंकि अहिंसा कसौटी है समस्त पाप-पुण्य की; चूंकि भयंकर हिंसा हुई, इसलिए पाप हुआ । जिम्मेवार कृष्ण हैं । इसलिए जैनों ने बड़ी हिम्मत की है। हिम्मत की बात है। कृष्ण जैसे व्यक्ति को नर्क में डालना हिम्मत की बात है। हाथ में तो हमारे है, क्योंकि किताब हम लिखते हैं, नर्क हमारे हैं। कृष्ण नर्क में हैं या नहीं, इसका तो कोई जानने का उपाय नहीं है। लेकिन जैन की दृष्टि कृष्ण नर्क में होने चाहिए। तो सातवें नर्क में उनको डाला है। लेकिन पीड़ा तो जैनों को भी मन में रही है, क्योंकि आदमी तो लाजवाब था; उनके सिद्धांत से मेल नहीं खाया। आदमी तो गजब का था, प्रतिभा तो उसकी अनूठी थी। सिद्धांत से मेल नहीं खाया, इसलिए सातवें : में डाला है। लेकिन अपराध भी भीतर मन में लगा होगा कि यह आदमी नर्क में डालने जैसा नहीं है, स्वर्ग में बिठाने जैसा है। इसलिए फिर उन्होंने एक तरकीब की व्यवस्था की। आदमी का मन बड़ी चालाकिया करता है, गणित बिठाता है। 66 तो जैनों ने एक नियम बनाया कि कृष्ण इस युग में तो सातवें नर्क में हैं, लेकिन आने वाले कल्प में जैनों के पहले तीर्थंकर होंगे! एक बैलेंस, एक संतुलन हो गया । श्रेष्ठतम वे जो कर सकते थे, वह यह कि आने वाले कल्प में जब सृष्टि विनष्ट हो जाएगी और पुनर्निर्मित होगी, तो जो पहला तीर्थंकर होगा जैनों का, वह कृष्ण की आत्मा ही पहली तीर्थंकर होगी। इस महाभारत की हिंसा में उलझने के कारण तीर्थंकर की हैसियत के आदमी को सातवें नर्क में डालने की मजबूरी है। लेकिन इस दुख को भोगकर और अनुभव से गुजरकर ऐसी भूल कृष्ण अब दुबारा नहीं करेंगे। आदमी तो गजब के हैं, अब यह भूल उनसे दुबारा नहीं होगी। तो वे पहले तीर्थंकर हो सकते हैं। निश्चित ही, अर्जुन के मन में अगर कृष्ण के प्रति प्रेम न होता, तो उसने गवाही दूसरी चुनी होतीं। ये तीन-चार जो गवाहों के नाम लिए हैं, ये ही गवाह नहीं थे, और भी गवाह थे । वे लोग भी थे, जिन्होंने कृष्ण को नर्क में डाला है। हम अपने प्रेम से अपनी गवाही चुन लेते हैं। अर्जुन का प्रेम है ' कृष्ण के प्रति लगाव है। उसने जो कृष्ण के अनुमोदन में हैं, उन लोगों के नाम चुन लिए हैं। लेकिन यह प्रेम श्रद्धा नहीं है, यह मित्र के प्रति प्रेम है। यह लगाव समान तल पर है। अर्जुन कहता है कि मानता हूं, आप जो भी कहते हैं, सत्य मानता हूं। लेकिन यह मान्यता सीधी नहीं है, यह बात ठीक से समझ लें। काश यह मान्यता सीधी होती, तो उसी क्षण गीता समाप्त हो जाती । बात पूरी हो गई थी। फिर कृष्ण का आदेश मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था । लेकिन अभी भी आदेश माना नहीं जा सकता। अर्जुन कहता है कि आप भगवान हैं, लेकिन अभी संदेह किए चला जाएगा। और जब कृष्ण बुद्धि से उसे सब | जगह से काट-छांट डालेंगे और जब उसकी बुद्धि को कोई उपाय नहीं मिलेगा, तो वह कहेगा कि ऐसे मेरी तृप्ति नहीं होती। आप तो | अपना विराट भगवान का रूप दिखाएं, तब शायद! नहीं, अभी उसका स्वयं का राजी होना नहीं हुआ है। बुद्धि से गवाह जुटाकर वह अपने को समझा रहा । इस सूत्र में जगह-जगह उसकी खबर है।
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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