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६ मनुष्य बीज है परमात्मा का
नहीं हो सकती। आप कुछ भी उपाय करें, अपने शरीर को मरा हुआ देख लेंगे। लेकिन आप देखने वाले बाहर जिंदा खड़े रहेंगे, कल्पना में भी! कितना ही सोचें कि मैं मर गया, कैसे मरिएगा! कल्पना में भी नहीं मर सकते। क्योंकि वह जो सोच रहा है, वह जो देख रहा है, कल्पना जिसे दिखाई पड़ रही है, वह साक्षी बना हुआ जिंदा रहेगा।
असली में तो मरना मुश्किल है, कल्पना में भी मरना मुश्किल है। लोग कहते हैं, कल्पना असीम है। कल्पना असीम नहीं है। आप मृत्यु की कल्पना करें, आपको पता चल जाएगा, कल्पना की भी सीमा है।
इसलिए अर्जुन सबको तो देखता है मृत्यु के मुंह में जाते, स्वयं को नहीं देखता। स्वयं को कोई भी नहीं देख सकता। अगर अर्जुन स्वयं को भी मृत्यु में जाते देखे, तो देखेगा कौन फिर? जो मृत्यु में जा रहा है वह अलग हो जाएगा, और जो देख रहा है वह अलग हो जाएगा। अगर अर्जुन देख रहा है मृत्यु में जाते, तो अर्जुन का शरीर भला चला जाए मृत्यु में, अर्जुन नहीं जा सकता; वह बाहर खड़ा रहेगा। वह देखने वाला है।
वह आत्मा है, उसे हमने इसीलिए द्रष्टा कहा है। वह सब देखता है। वह मृत्यु को भी देख लेता है।
इसलिए अर्जुन को खयाल नहीं आया। आने का कोई उपाय भी नहीं है। वह बाहर है, वह देखने वाला है । और सब मर रहे हैं - मित्र भी, शत्रु भी, बड़े-बड़े योद्धा - लेकिन अर्जुन को खयाल भी नहीं आ रहा कि मैं मर रहा हूं, या मैं मर जाऊंगा।
इसलिए बड़े मजे की बात है, आप रोज लोगों को मरते देखते हैं, आपको भय भी पकड़ता है, लेकिन आप विचार करें, कभी भीतर यह बात मजबूती से नहीं बैठती है कि मैं मर जाऊंगा । ऊपर-ऊपर कितना ही भयभीत हो जाएं कि मरना पड़ेगा, लेकिन भीतर यह बात घुसती नहीं कि मैं मर जाऊंगा। भीतर यह भरोसा बना ही रहता है कि और लोग ही मरेंगे, मैं नहीं मरूंगा ।
यह भरोसा प्रतिफलन है उस गहरे आंतरिक केंद्र का, जहां मृत्यु कभी प्रवेश नहीं करती। उसके बाहर-बाहर ही मृत्यु घटित होती है। आपका घर आपसे छीना जाता है बहुत बार आपके वस्त्र आपसे छीने जाते हैं बहुत बार, जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, व्यर्थ हो जाते हैं, नए वस्त्र मिल जाते हैं। लेकिन आप ! आप कभी भी नष्ट नहीं होते।
इसलिए अपनी मृत्यु की कल्पना असंभव है। अपनी मृत्यु का दर्शन भी असंभव है। और जो अपनी मृत्यु का दर्शन करने की कोशिश कर लेता है, वह अमृत का अनुभव कर लेता है।
समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं अपनी मृत्यु का अनुभव करने की | कोशिश हैं। सब प्रक्रियाएं, योग की सारी चेष्टा इस बात की है कि आप होशपूर्वक अपने को मरता हुआ देख लें।
क्या होगा? सब मर जाएगा, आप बच जाएंगे।
रमण को ऐसा हुआ कि उन्हें लगा कि उनकी मृत्यु आ रही है। वे बीमार हैं, उनकी मृत्यु आ रही है। और जब मृत्यु आ ही रही है, | तो उससे लड़ना क्या, हाथ-पैर ढीले छोड़कर वह लेट गए। उन्होंने | कहा, ठीक है। जब मृत्यु आ रही है, तो आ जाए। मैं मृत्यु को भी | देख लूं कि मृत्यु क्या है !
सब शरीर ठंडा हो गया। ऐसा लगने लगा कि शरीर अलग हो गया। लेकिन सब शरीर मरा हुआ मालूम पड़ रहा है, फिर भी रमण को लग रहा है, मैं तो जिंदा हूं। वही अनुभव उनके जीवन में क्रांति बन गया। उसके पहले वे रमण थे, उसके बाद वे भगवान हो गए। | उसके पहले तक उन्होंने जाना था, मैं यह शरीर हूं, जो मरेगा। इसके बाद उन्होंने जाना कि यह शरीर मैं नहीं हूं। जो नहीं मरेगा, वह मैं हूं। सारा तादात्म्य बदल गया। सारी दृष्टि बदल गई। एक नए जन्म | की— अमृत, एक नए जीवन की शुरुआत हो गई।
योग की सारी प्रक्रियाएं आपको स्वेच्छा से मरने की कला सिखाने की हैं। पुराने शास्त्रों में कहा है, आचार्य, गुरु, मृत्यु है । | क्योंकि जिस गुरु के पास आपको मृत्यु का अनुभव न हो पाए, वह गुरु ही क्या ! लेकिन मृत्यु का अनुभव बड़ा विरोधाभासी है। एक तरफ जो भी आपने अपने को समझा था - नाम, धाम, पता-ठिकाना, शरीर — सब मर जाता है । और जो आपने कभी नहीं सोचा था आपके भीतर, एक ऐसे केंद्र का आविर्भाव हो जाता है, जिसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं है, जो अमृत है।
अर्जुन को इसलिए अनुभव नहीं हुआ । और आपको भी तभी तक मृत्यु का भय है, जब तक आपने अनुभव नहीं किया है। आपके भीतर क्या मरणधर्मा है और क्या अमृत है, इसका भेद ही | ज्ञान है। आपके भीतर क्या-क्या मर जाने वाला है और क्या-क्या नहीं मरने वाला है, इसकी भेद-रेखा को खींच लेना ही ज्ञान है। समाधि में वही भेद-रेखा खिंच जाती है। आप दो हिस्सों में साफ हो जाते हैं।
एक आपकी खोल है, जो मरेगी, क्योंकि वह जन्मी है। जो जन्मा है, वह मरेगा। और एक आपके भीतर की गिरी है, जो नहीं मरेगी, | क्योंकि वह जन्मी भी नहीं है। शरीर का जन्म है, आपका कोई जन्म
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