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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ अदृष्टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। अगर अपने आपको भी देखा, तो उसका उल्लेख क्यों तदेव में दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगनिवास ।। ४५ ।। । नहीं किया गया है? और अगर नहीं देखा, तो क्यों? किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूते।। ४६ । । श्रीभगवानुवाच गह प्रश्न कीमती है और बहुत सोचने योग्य। मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । प कोई भी व्यक्ति अपनी मृत्यु नहीं देख सकता। मृत्यु तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न सदा दूसरे की ही देखी जा सकती है। क्योंकि मृत्यु दृष्टपूर्वम् ।। ४७ ।। बाहर घटित होती है. भीतर तो घटित होती ही नहीं। समझें।। न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दान व क्रियाभिर्न तपोभिरुः । आपने जब भी मृत्यु देखी है, तो किसी और की देखी है। आपकी एवंरूपः शक्य अहं नलोके द्रष्टुं त्वदन्येन मृत्यु की जो धारणा है, वह दूसरों को मरते देखकर बनी है। ऐसा कुरुप्रवीर ।। ४८।। नहीं है कि आप बहुत बार नहीं मरे हैं। आप बहुत बार मरे हैं। हे विश्वमतें, मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस लेकिन जो भी आपकी मृत्यु की धारणा है, वह दूसरे को मरते हुए रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं और मेरा मन भय से अति देखकर आपने बनाई है। व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव, आप उस अपने जब दूसरा मरता है, तो आप बाहर होते हैं। शरीर निस्पंद हो चतुर्भुज रूप को ही मेरे लिए दिखाइए । हे देवेश,हे | जाता है। श्वास बंद हो जाती है। हृदय की धड़कन समाप्त हो जाती जगनिवास, प्रसन्न होइए। | है। खून चलता नहीं। आदमी बोल नहीं सकता। निष्प्राण हो जाता और हे विष्णो, मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए है। लेकिन भीतर जो था, वह तो कभी मरता नहीं। तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। और आदमी अपनी मौत कैसे देख सकता है! इसलिए भीतर जो इसलिए हे विश्वरूप, हे सहस्रबाहो, आप उस ही चतुर्भुज | मर रहा है, वह नहीं देख सकता कि मैं मर रहा हूं। वह तो अब भी रूप से युक्त होइए। | पाएगा कि मैं जी रहा हूं। अगर होश में है, तो उसे दिखाई पड़ेगा इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान कि मैं जी रहा हूं। अगर बेहोश है, तो खयाल में नहीं रहेगा। बोले, हे अर्जुन, अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन बेहोशी में मरे हैं। इसलिए हमें कोई प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और खयाल नहीं है। हमें कुछ पता नहीं है कि मृत्यु में क्या घटा। अगर सीमारहित विराट रूप तेरे को दिखाया है, जो कि तेरे सिवाय एक बार भी हम होश में मर जाएं, तो हम अमृत हो गए। क्योंकि दूसरे से पहले नहीं देखा गया। तब हम जान लेंगे कि बाहर ही सब मरता है। जो मेरा समझा था, है अर्जन. मनष्य-लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैंन | वह टट गया. बिखर गया. शरीर नष्ट हो गया। लेकिन मैं। मैं अब वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से तथा न दान से और न भी हूं। क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखा कोई व्यक्ति कभी स्वयं की मृत्यु का अनुभव नहीं किया है। जो जाने को शक्य हूं। लोग बेहोश मरते हैं, उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि क्या हुआ। जो लोग होश से मरते हैं, उन्हें पता चलता है कि मैं जीवित हूं। जो मरा, वह शरीर था, मैं नहीं हूं। एक मित्र ने पूछा है, भगवान कृष्ण के विकराल __इसलिए ऐसा सोचें, और तरह से। अगर आप कल्पना भी करें स्वरूप में अर्जुन देवताओं को कंपित होते हुए देखता | अपने मरने की, तो कल्पना भी नहीं कर सकते। अनुभव को छोड़ है, अन्यों को मृत्यु की ओर जाते हुए देखता है। | दें। कल्पना तो झूठ की भी हो सकती है। और आपने सुना होगा, लेकिन क्या उसने अपने आपको इस विकराल रूप | कल्पना तो किसी भी चीज की हो सकती है। कल्पना ही है। लेकिन में नहीं देखा? मृत्यु के मुंह में जाते नहीं देखा? और | आप अपने मरने की कल्पना करें, तब आपको पता चलेगा, वह 1394
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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