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गीता दर्शन भाग-500
के पास-वे सभी अहंकार-केंद्रित हैं। आदमी ने बनाई हैं भाषाएं, | | में, उसके सब ओर, उसके समस्त कृत्यों में परमात्मा का ही आदमी उनका स्रष्टा है। अहंकार केंद्र पर है। इसलिए हर चीज गुणगान शुरू हो जाता है। अहंकार से जुड़ी हुई है।
बुद्ध को सोचें चलते हुए आपके बीच से। उन्हें कहना न पड़ेगा। तो जब हम अहंकार के पार की कोई बात कहना चाहते हैं, तब उनका चलना! बड़ी मुसीबत होती है। कहना पड़ता है, समर्पण करो। यह _ ऐसी घटना घटी कि बुद्ध ने जब साधना शुरू की और छः वर्ष बिलकुल गलत वाक्य है। क्योंकि समर्पण कोई कैसे करेगा? और | | तक कठोर तपश्चर्या की, तो पांच उनके भक्त थे। तरह-तरह के जब करेगा, तो वह समर्पण कैसे होगा? कृत्य, कर्म कैसे समर्पण | भक्त होते हैं। वे भक्त बुद्ध के भक्त नहीं थे। वे बुद्ध जो तपश्चर्या हो सकता है? कर्ता तो मैं रहूंगा। मैंने किया, तो समर्पण नहीं हो करते थे, उसके भक्त थे। बुद्ध अपने शरीर को सुखा डालते, इससे सकता। लेकिन हमें कहना पड़ता है, समर्पण करो। जब कि ठीक | वे बड़े प्रभावित थे। बुद्ध से नहीं, शरीर सूख जाए इससे। मानते थे होगा, उचित होगा कहना, समर्पण होता है, किया नहीं जाता। कि बुद्ध महातपस्वी है। भूखा रहता है, लंबे उपवास करता है,
लेकिन अगर ऐसा कहा जाए कि समर्पण होता है, किया नहीं | | काया की चिंता नहीं करता, कंकड़-पत्थरों पर सोता है, कांटों में जाता, तो हमारा मन तत्काल दूसरी गलत बात समझ लेगा। वह | चलता है, सूख गया, हड्डी-हड्डी हो गया। कहेगा, फिर अपने वश की बात न रही। होगा, तब हो जाएगा। हम ___ उस समय की बनाई गई एक प्रतिछवि और उस समय की बनाई क्या कर सकते हैं! या तो हम करेंगे समर्पण, तो अहंकार मौजूद गई एक प्रतिमा है, जिसमें बुद्ध का सिर्फ अस्थिपंजर शेष रहा है। रहेगा, समर्पण होगा नहीं। और या फिर हम कहेंगे, हम कर ही क्या उनका पेट, पीछे पीठ से जुड़ गया है। सिर्फ हड्डियां छात्री की भर सकते हैं! हम प्रतीक्षा करेंगे; होगा, तब हो जाएगा। तब भी हम | | दिखाई पड़ती हैं। सब मांस खो गया है। वे पांच उनके बड़े भक्त थे। धोखा दे रहे हैं।
फिर बुद्ध को पता चला कि इस तरह अपने को सताकर मैं कहीं हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को ठहरा सकते हैं। भी नहीं पहुंचा। यह तो एक तरह की क्रमिक आत्महत्या है। तो बुद्ध हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को तोड़ सकते हैं। और । | ने जैसे एक दिन भोग छोड़ दिया था और महल छोड़ दिए थे, वैसे जब मन टूट जाता है, मन ठहर जाता है, तो समर्पण हो जाता है। ही एक दूसरा महात्याग किया, त्याग भी छोड़ दिया।
समर्पण बाइ-प्रोडक्ट है, ध्यान की छाया है। ध्यान हम कर | | यह जरा कठिन है समझना। क्योंकि कोई महल को छोड़कर सकते हैं, समर्पण छाया की तरह पीछे चला आता है। जिनके जीवन जाए, हम सब समझ लेते हैं, क्योंकि महल हमारे पास नहीं है और में ध्यान आता है, उनके जीवन में समर्पण अचानक, बिना कोई महल को पाने की आकांक्षा हमारे भीतर है। तो जब कोई महल को पगध्वनि किए, बिना कोई आहट किए, बिना कोई खबर दिए, छोड़ता है, हमें लगता है, महात्यागी है। बुद्ध ने एक दिन महल अतिथि की भांति चुपचाप, मौन, भीतर प्रवेश कर जाता है। इस छोड़ा, तो वे महात्यागी थे। फिर एक दिन उन्होंने पाया कि यह त्याग समर्पण की तरफ ही इशारा है।
| भी मेरा ही अहंकार है। यह भी मेरा ही कर्ता का भाव है कि मैं तप मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले, सदा आपस में मेरे प्रभाव | कर रहा हूं, साधना कर रहा हूं, योग कर रहा हूं। यह भी सब मेरा को जनाते हुए...।
अहंकार है। एक दिन उन्होंने इसे भी त्याग दिया। इसका यह मतलब नहीं है कि एक-दूसरे से प्रभु की स्तुति की यह महात्याग है। त्याग को भी जब कोई छोड़ पाता है-भोग बातें कर रहे हैं कि वह बहुत महान है, कि वह बड़ा दयालु है, कि | | को भी छोड़ देता है, त्याग को भी छोड़ देता है—तब आदमी वह बड़ा प्रेमी है। यह सब, यह बातों से कोई किसी को जना नहीं | | वीतराग हो जाता है, तब वह परम स्थिति को पहुंचता है। सकता। लेकिन जो व्यक्ति एकीभाव को उपलब्ध हो जाता है, वह लेकिन पांचों भक्त बुद्ध को छोड़कर चले गए, उन्होंने कहा, यह आंख की पलक भी उसकी हिलती है. तो भी परमात्मा की ही खबर तो भ्रष्ट हो गया। इसने उपवास बंद कर दिए। अब कोई भोजन लाता उसके चारों तरफ फैलती है। उसका पैर भी चलता है, तो परमात्मा है, तो यह भोजन ग्रहण कर लेता है। कोई कपड़े दे जाता है, तो कपड़े ही उससे चलता है। उसके उठने में, उसके बैठने में, उसके चलने | | भी पहन लेता है। अब धूप में न बैठकर वृक्ष की छाया में बैठ जाता में, उसके फिरने में, उसके आचरण में, उसके शब्द में, उसके मौन है, यह भ्रष्ट हो गया। वे पांचों बुद्ध को छोड़कर चले गए।