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________________ ॐ ध्यान की छाया है समर्पण फिर बुद्ध को परम ज्ञान हुआ। तो बुद्ध को खयाल आया अपने | से करते हैं कि दूसरों के कान में, चाहे वे सो ही रहे हों, अगर पांच उन शिष्यों का, कि उन्हें जाकर मैं पहली खबर उन्हीं को दूं, | भगवान का नाम पहुंचा, तो बड़ा लाभ होगा। क्योंकि वर्षों तक वे मेरे साथ थे। तो बुद्ध उनका पता लगाते हुए | इधर मैंने सना है कि ऐसे करने वाले लोग नर्क भेज दिए जाते बोध-गया से काशी आए, क्योंकि सारनाथ में वे पांचों भिक्षु ठहरे | हैं। क्योंकि वे केवल दूसरों की नींद हराम कर रहे हैं, और कुछ भी हुए थे। बुद्ध बोध-गया से पैदल चलते हुए उन भिक्षुओं को खोजते नहीं कर रहे हैं। और उन पर तो चिढ़ आती ही है सोने वालों को, हुए सारनाथ पहुंचे। इस भगवान के नाम तक से भी धीरे-धीरे चिढ़ आने लगेगी। सांझ होने का वक्त था और वे पांचों एक चट्टान के पास बैठकर कोई जबरदस्ती किसी को भगवान का नाम नहीं दिलवा सकता सत्संग कर रहे थे। देखा बुद्ध को आते हुए, तो उन पांचों ने कहा | है। और न ही कोई किसी को भगवान की स्तुति करवाकर प्रभावित कि भ्रष्ट हो गया गौतम आ रहा है। देखो, इसके शरीर पर अब कर सकता है। लेकिन जब कोई भगवान को जीता है, तो उसके हड्डियां नहीं दिखाई पड़ती; अब मांस-मज्जा आ गई है। बिलकुल | उठने में, बैठने में, चलने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, भ्रष्ट हो गया है। यह आ रहा है। हम इसे उठकर नमस्कार भी न | उसकी भाव-भंगिमा में, उसकी मुद्राओं में, सब तरफ भगवान की करें। हम इसकी तरफ देखें भी न। अगर यह हमें नमस्कार भी करे, स्तुति शुरू हो जाती है। तो हम इसका उपेक्षा से उत्तर दें। हम इससे बैठने को भी न कहें, बुद्ध से किसी ने आकर पूछा है कि मैंने सुना है कि आप ईश्वर क्योंकि यह भ्रष्ट हो गया है। को नहीं मानते हैं! बुद्ध ने कहा, सुनने की फिक्र छोड़ो, तुम मुझे बुद्ध उनके जैसे-जैसे पास आए, वैसे-वैसे उनका संकल्प गौर से देखो। मैं क्या कहता हूं, यह मूल्यवान नहीं है। मैं क्या हूं, पिघलने लगा। बुद्ध जैसे-जैसे उनके पास आए, वैसे-वैसे भूल यह मूल्यवान है। लेकिन वह आदमी जमीन पर अपनी आंखें गड़ाए गए वे कि हमने निर्णय किया है कि उठकर नमस्कार न करेंगे। और हए है, वह कहता है कि मेरे सवाल का जवाब आपने नहीं दिया। एक उठकर बद्ध के चरणों में गिरा. दसरा बद्ध के चरणों में गिरा. आप मेरे प्रश्न का उत्तर दें। मैंने सना है कि आप लोगों से कहते हैं फिर वे पांचों बद्ध के चरणों में गिर गए। तब बद्ध ने उनसे पहली कि कोई ईश्वर नहीं है! बात कही कि मैं जब दूर था, तब मैंने अंतर्ध्वनि सुनी कि तुमने | इस सूत्र को ध्यान से समझेंगे, तो इसका अर्थ हुआ, आपस में निर्णय किया है कि तुम उठकर मुझे नमस्कार नहीं करोगे। फिर तुम | मेरे प्रभाव को जनाते हुए; उनके व्यवहार से, उनके होने से, उनके अपने संकल्प को क्यों छोड़ रहे हो? अस्तित्व से मेरी सुगंध को उड़ाते हुए। तो उन पांचों की आंखों में आंसू बहने लगे और उन्होंने कहा, | ___ वही स्तुति है परमात्मा की। आपके कहने से कोई राजी न होगा, हम अपने संकल्प को न छोड़ते, लेकिन तुम्हारा आना ठीक वैसा आपके होने से कोई राजी होगा। आप क्या कहते हैं, कौन चिंता ही आना है, जैसे परमात्मा आ रहा हो। जब तक तुम दूर थे और करता है! आप क्या हैं? हम तुम्हें देख न पाए और तुम्हारी आंखों की रोशनी हम पर न पड़ी, | | और यह बड़े मजे की बात है कि आप क्या कहते हैं, वह दो तब तक हम अपने संकल्प में दृढ़ थे। जैसे-जैसे तुम पास आने | कौड़ी का हो जाता है, अगर आप उसके विपरीत हैं। और आप कुछ लगे, तो जैसे सूरज उगने लगे और रात छंटने लगे और तारे डूबने | भी न कहें, लेकिन जो आप कहना चाहते हैं, अगर उसके अनुकूल लगें, वैसे ही हमारा मन, हमारा संकल्प सब खोने लगा। और तुम | हैं, तो बिना कहे भी वह कह दिया जाता है। लेकिन इस सूक्ष्म भाव जब पास आए, तब हमें याद भी न रहा कि हम क्या कर रहे हैं। का खयाल तो, आप भीतर उतरें और उस एकीभाव की झलक यह तो तुमने हमसे कहा कि तुमने अपना संकल्प क्यों छोड़ा, | | मिले, तो ही स्पष्ट हो सकता है। इसलिए हमें अपने पुराने संकल्प की याद आती है। तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं! इस सत्र का अर्थ ऐसा नहीं है कि हम एक-दसरे को भगवान | | यह बडा प्रीतिकर. बडा प्रीतिकर वचन है कि मेरा कथन करते की स्तुति का गान करके, और भगवान की तरफ स्मरण दिलाएंगे। हुए संतुष्ट होते हैं। अगर हम कभी ईश्वर का कथन भी किसी से ऐसे कोई स्मरण नहीं होता। ऐसा बहुत-सा स्मरण चलता है। लोग | | करते हैं, तो हम संतुष्ट कथन करते वक्त नहीं होते। हम संतुष्ट होते माइक लगाकर अखंड कीर्तन कर देते हैं चौबीस घंटे! इसी खयाल | हैं, अगर दूसरा राजी हो जाए, कनवर्ट हो जाए। अगर मैं किसी को 55
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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