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8 गीता दर्शन भाग-588
अपने विचार में ढाल लूं, तब मैं संतुष्ट होता हूं।
| तक बढ़ चुकी थी कि बैंक चलेगा, कोई डर की बात नहीं है! लेकिन वह संतोष अहंकार का संतोष है। सब कनवर्शन करीब-करीब कनवर्टिंग माइंड इसी तरह के होते हैं। दूसरा जब अहंकार-केंद्रित हैं। अगर मैं इस चेष्टा में लगा हूं कि जो मैं मानता बदल जाए, तो खुद भी भरोसा आता है कि ठीक है, हम जो मानते हूं, वही आपको मनवा दूं; और अगर आपको मनवाने में सफल हैं, वह ठीक है। वह किताब, वह शास्त्र, वह संदेश सही होना हो जाता हूं, तो जो संतोष मिलता है, वह अहंकार का संतोष है; | चाहिए, नहीं तो यह आदमी कैसे राजी हो जाता! वह पाप है।
___ इसलिए जब आपसे कोई राजी नहीं होता, तो आप बड़े नाराज नहीं, यह सूत्र यह नहीं कहता है। यह सूत्र कहता है, मेरा कथन | | होते हैं। वह आप उस पर नाराज नहीं हो रहे हैं; वह आपको अपने करते हुए संतुष्ट होते हैं। आप राजी हुए या नहीं हुए, आपने सुना भीतर, आपका खोखलापन आपको अब दिखाई पड़ रहा है कि भी या नहीं सुना, यह निष्प्रयोजन है, यह व्यर्थ है। इसकी बात ही | | कोई मुझसे राजी नहीं हो रहा; किसी को मैं सहमत नहीं करवा पा क्या उठानी! उन्होंने प्रभु की चर्चा कर ली, यह काफी संतोष है। | रहा हूं। तब आपकी जड़ें हिलने लगीं, आपका भरोसा टूटने लगा। यह काफी संतोष है कि उन्हें प्रभु की चर्चा करने का एक क्षण | अगर दो दिन तक ये दो आदमी इसके पास बैंक में जमा करवाने न मिला। उनके जीवन की समस्तता से प्रभु का गुणगान हो सका, यह | आते, तो तीसरे दिन यह तख्ती निकालकर अपना कोई दूसरा काम संतुष्टि है।
शुरू कर देता। इसलिए एक बहुत अदभुत बात है, हिंदू धर्म कनवर्टिंग धर्म नहीं | | हिंदू धर्म नान-कनवटिंग रिलीजन है, किसी को बदलने की है। हिंदू धर्म किसी को रूपांतरित नहीं करना चाहता। हिंदू धर्म ने | | आकांक्षा नहीं है। दयानंद ने पहली दफा हिंदू विचार में बदलने का अपने इतिहास में दूसरे को रूपांतरित करने की अपने धर्म में, कभी | | खयाल दिया। इसलिए दयानंद को मैं पक्का हिंदू नहीं कहता हूं। कोई चेष्टा नहीं की। यह बड़ी अदभुत बात है। क्योंकि बड़ा | | उनमें ईसाइयत और मुसलमान होने के गहरे लक्षण हैं। बुरे हैं, ऐसा स्वाभाविक यह है, मन की यह स्वाभाविक आकांक्षा होती है कि | नहीं कहता। लेकिन हिंदू की जो एक अपनी धारा थी, उसको तोड़ने जो मैं मानता हूं, वही दूसरा भी मान ले।
वाले हैं, ऐसा जरूर कहता हूं। शायद आपने सोचा न हो, यह आकांक्षा क्यों होती है। यह ___ क्योंकि हिंदू मानता है, किसी को क्या बदलना! अगर मेरे जीवन आकांक्षा इसलिए होती है कि मुझे खुद भी पक्का भरोसा नहीं है, की सुगंध किसी को बदल दे, तो काफी है। लेकिन मैं क्यों बदलने जो मैं मानता हूं, उस पर। जब मैं दूसरे को भी राजी कर लेता हूं, जाऊ! और बदलना एक तरह का आक्रमण है, हिंसा है। क्यों मैं तो थोड़ा भरोसा आता है। जब भीड़ बढ़ने लगती है और मेरे साथ | चोट करूं किसी के ऊपर कि तुम गलत हो! और क्यों तुम्हें राजी बहुत लोग राजी होने लगते हैं, तो मैं समझता हूं कि जो मैं कह रहा | | करने के लिए आग्रहशील बनूं! अगर मेरा जीवन तुम्हें बदल दे, तो हूं, वह सत्य है। अन्यथा इतने लोग कैसे मानते! मनोवैज्ञानिक ठीक है। अगर तुम खुद इस सुगंध से प्रभावित होकर आ जाओ, कहते हैं कि भीतरी इनफीरिआरिटी, भीतरी हीनता है; भीतर पक्का | तो ठीक है। अगर मंदिर की बजती हुई घंटी ही तुम्हें बुला ले, तो भरोसा नहीं है। दूसरे को राजी करवाकर अपने पर भरोसा आता है। | काफी है। और अलग से तुम्हें बुलाने जाने की कोई जरूरत नहीं है।
सुना है मैंने कि जिस आदमी ने न्यूयार्क में सबसे पहला बैंक और कभी कोई किसी को जबरदस्ती बुलाकर ला भी नहीं पाता। खोला, उससे जब बाद में पूछा गया कि तुझे बैंक खोलने का कैसे और ले भी आए, तो शरीर ही आता है, आत्मा पीछे छूट जाती है। खयाल आया और कैसे तूने बैंक खोला? तो उसने कहा कि मैंने ईश्वर की स्तुति-अस्तित्व से, व्यक्तित्व से, होने से। तब फिर बैंक खोला। मेरे पास पचास डालर थे। कोई और धंधा नहीं था.
जी करने में नहीं है तो मैंने सोचा, चलो बैंकिंग। तो मैंने एक दफ्तर खोला, तख्ती | | अभिव्यक्ति में है। तब संतोष जो मेरे भीतर था, उसको सुवासित लगाई, बोर्ड लगाया बैंक का, और मैं दफ्तर में बैठ गया। एक | | कर देने में है, उसे बाहर फैला देने में है। दूसरे पर क्या परिणाम आदमी आया और सौ डालर जमा कर गया। दूसरे दिन दूसरा | हुआ, यह विचारणीय भी नहीं है। आदमी आया और तीन सौ डालर जमा कर गया। तो तीसरे दिन | ___ इधर मैं देखता हूं, एक बड़े विचारक हैं, अब उम्र के आखिरी मेरे जो पचास डालर थे, वे भी मैंने जमा कर दिए। मेरी हिम्मत तब दिन हैं उनके। जिंदगीभर उन्होंने कोशिश की लोगों को समझाने ..
रोष अपनी
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