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ध्यान की छाया है समर्पण
मुश्किल में पड़ा कि अब मैं क्या करूं! वचन देकर बुरा फंस गया। से बच जाएं, तो बचने का कोई उपाय नहीं है। आप भागना चाहें, एक नमाज चूक गई मेरी भी! क्योंकि वचन मैंने दिया था, तुम | उससे दूर निकल जाएं, तो दूर नहीं निकल सकते। आप आंख बंद प्रार्थना करोगे, तो मैं भी प्रार्थना करूंगा। तुम ही प्रार्थना में न गए! करें, तो वह मौजूद होगा। आप आंख खोलें, तो वह मौजूद होगा।
मन का अर्थ ही आपका जगत से जो संबंध है, उसका जोड़ आप कुछ भी करें, वह मौजूद होगा। तभी निरंतर मन लगाने का आपका मन है। तो आप मन को परमात्मा में लगा नहीं सकते। मन अर्थ जाहिर होगा। फिर कोई उपाय नहीं रह जाता आपके हाथ में। तो संसार में ही लगेगा। हां, मन न रह जाए, तो जो लगाव घटित आप होते ही उसमें हैं। जैसे मछली सागर में है, ऐसे आप उसमें होगा, वह परमात्मा से होगा। इसलिए जब यह सूत्र ध्यान के अर्थ | | होते हैं। चारों ओर वही होता है। लेकिन यह अर्थ ध्यान से खुलेगा। से समझेंगे, तो इसका अर्थ होगा-मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, | अगर शब्द से खोलने जाएंगे, तो यह सूत्र उलटा मालूम पड़ेगा। इसका अस्तित्वगत, ध्यानगत अर्थ होगा—जिन्होंने अपना मन खो मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण दिया और मुझमें निरंतर रहने लगे।
करने वाले भक्तजन! मन को आप परमात्मा में लगा ही नहीं सकते। मन का अर्थ ही | कौन करेगा अर्पण प्राणों को? आप कर सकते हैं? सोचकर तो बीमारी है। मन का अर्थ ही तरंगें है। मन का अर्थ ही बेचैनी है। मन | नहीं कर सकते, विचारकर तो नहीं कर सकते, मनपूर्वक तो नहीं को आप परमात्मा में नहीं लगा सकते। जब तक मन है, तब तक | कर सकते। क्योंकि जब कोई मनपूर्वक कहता है कि मैं अपने प्राण आप भी परमात्मा में नहीं लग सकते। मन जहां शांत, शून्य हो | | अर्पित करता हूं, तो भी अंतिम निर्णायक वही रहता है। कल वह जाता है, वहां आप परमात्मा में लग गए। और यह लगना बहुत | कह सकता है कि वापस लिया। प्राण अब अर्पित नहीं करते! तो अलग तरह का है। क्योंकि मन को लगाते हैं, तो चेष्टा करनी पड़ती | परमात्मा क्या करेगा? जब आप मंदिर में जाकर सिर रखते हैं चरणों है, फिर भी मन भागता है। यह लगना चेष्टा का नहीं है; चेष्टारहित | | में, तो यह भी आपका निर्णय है। आप चाहें तो रखें और चाहें तो है। अब आप भागना भी चाहें, तो परमात्मा से भाग नहीं सकते। | | न रखें। और जब आप कहते हैं कि परमात्मा, मैं अपने प्राण तुझे
नानक के जीवन में दूसरा उल्लेख है। वे मक्का गए और पैर | | देता हूं, तो भी आप हैं देने वाले! कल आप वापस ले सकते हैं। करके सो गए पवित्र मंदिर की तरफ। रात पुजारियों ने उन्हें हिलाया, | | आप मौजूद रहते हैं, मिटते नहीं। उठाया और जगाया और कहा कि तुम नासमझ मालूम पड़ते हो! लेकिन ध्यान के बाद जो समर्पण होता है, वह आपका कृत्य नहीं यह सोचकर कि तुम एक फकीर हो, हमने ठहर जाने दिया मंदिर | है, वह आपका कर्म नहीं है। ध्यान से जो समर्पण होता है, वह में। और तुम पवित्र मंदिर की तरफ पैर करके सो रहे हो? तुम्हें | आपकी मजबूरी है, वह आपकी हेल्पलेसनेस है, आप असहाय हैं। परमात्मा की तरफ पैर करते हुए शर्म नहीं आती! तो नानक ने कहा, | जैसे ही ध्यान में कोई उतरता है, फिर ऐसा नहीं लगता है कि मैं शर्म तो मुझे बहुत आती है। लेकिन मेरी भी अपनी मुसीबत है। मैं | अपने प्राण परमात्मा को समर्पित करूं। फिर ऐसा उसे पता चलता तुमसे कहता हूं, मेरे पैर तुम उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो। | है कि मेरे प्राण सदा से उसी को समर्पित हैं। मेरे प्राण उससे ही चल मैं राजी हूं।
रहे हैं, मेरी श्वास उसकी ही श्वास है। मैं उससे अलग नहीं हूं कि पजारी मश्किल में पड़ गए। पैर कहां किए जा सकते हैं, जहां. समर्पण कर सके। इतना भी अलग नहीं हैं कि समर्पण कर सके। परमात्मा न हो! नानक ने कहा, मेरी मुसीबत यह है कि मैं कहां पैर
मैं समर्पित हूं। करूं! जहां भी पैर करूं, वहीं परमात्मा है। इसलिए कहीं भी पैर यह बहुत अलग बात है। अब समर्पण वापस नहीं लिया जा करूं, अब कोई फर्क नहीं पड़ता।
सकता। यह अनुभव–कि मैं उसमें ही जी रहा हूं, वही मुझमें जी जिस व्यक्ति का मन खो जाएगा, उसे परमात्मा में ध्यान लगाना | रहा है, मेरी कोई पृथकता नहीं है—इस अनुभव का नाम है, मेरे में नहीं पड़ता; वह जहां भी जाए, जहां भी ध्यान लगाए, परमात्मा ही | ही प्राणों को अर्पण करने वाले। है। वह जो भी करे, सब तरफ परमात्मा ही है। मन वाले आदमी | | लेकिन भाषा की अपनी मजबूरियां हैं। यह भाषा में जो भी कहा को कोशिश कर-करके परमात्मा में लगना पड़ता है, फिर भी लग गया है, यह बहुत उलटा है। भाषा अक्सर चीजों को उलटा कर नहीं पाता। और मन खोया कि आप कोशिश भी करें कि परमात्मा देती है। क्योंकि भाषा के पास जितने भी शब्द हैं किसी भी भाषा
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