SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ साधना के चार चरण अपने को मिटाने को जो तैयार है, उसे इस जगत में फिर कोई भी नहीं मिटा सकता। और अपने को बचाने को जो पागल है, वह मिटेगा ही। क्योंकि जो हमारे भीतर भयभीत है कि मिट न जाऊं, वह है अहंकार | वह मिटेगा ही, वह बनाई हुई चीज है। जो बनाई हुई चीज है, वह मिटती ही है। . हमारे भीतर जो मृत्यु से भी नहीं मिटती, वह है आत्मा । और जब तक हमें मृत्यु का भय है, उसका अर्थ हुआ कि हमें आत्मा का कोई भी पता नहीं। हमें सिर्फ अपने अहंकार का, अस्मिता का, मैं भाव का पता है। हमारे भीतर मरणधर्मा है अहंकार, और अमृत है आत्मा । हम सबको अपने मैं का पता है, आत्मा का कोई पता नहीं है। इस मैं को ही हम लिए जाते हैं परमात्मा के द्वार पर भी । यह भीतर प्रवेश न कर सकेगा। इसे मिटना होगा, इसे बाहर दरवाजे पर ही छोड़ना होगा। अर्जुन का भय भी उन सभी साधकों का भय है, जो आखिरी किनारे पर खड़े हो जाते हैं और जहां सवाल उठता है कि क्या अब मैं अपने को खोने को राजी हूं? हम परमात्मा को भी पाना चाहते हैं अपने में जोड़ने को, ध्यान रखना। वह भी हमारी संपत्ति हो । वह भी हमारी मुट्ठी में हो। वह भी हमारे बैंक बैलेंस में लिखा हो, कि इस आदमी को भगवान मिल गया। वह भी हमारे हाथ में हो। हमारा अहंकार उसके होने से और प्रगाढ़ होता हो, कि मैंने परमात्मा को पा लिया। इसलिए हम उसकी भी खोज करते हैं। और धर्म बड़ी उलटी व्यवस्था है। धर्म कहता है, जब तक तुम हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। कबीर ने कहा है, जब तक मैं था, खोज - खोजकर, परेशान हो-होकर मिट गया, उसे न पाया। और जब मैं मिट गया, तो मैंने देखा कि वह सामने खड़ा हुआ है ! वह दूर नहीं था। मैं था, इसीलिए दूर था । मेरा होना ही एकमात्र अड़चन, बाधा, अवरोध है। अर्जुन भी उसी अंतिम, आखिरी ... । ज्ञानियों ने कहा है, अहंकार अंतिम बाधा है। सब छूट जाता है। धन छोड़ना आसा है। परिवार छोड़ना आसान है। शरीर छोड़ना आसान है। अहंकार छोड़ना सबसे कठिन है कि मैं हूं। और जब तक मैं हूं, तब तक मैं हूं केंद्र। और अगर परमात्मा भी सामने खड़ा हो, तो वह भी नंबर दो है। जब तक मैं हूं, तब तक वह भी नंबर दो है, नंबर एक तो मैं ही हूं! और जब तक परमात्मा को नंबर एक पर रखने की तैयारी न हो, तब तक बाधा रहेगी। जिस क्षण मैं कह सकता हूं कि अब तू ही है, अब मैं नहीं हूं... 1 जार्ज गुरजिएफ ने आदमी की साधना के चार चरण कहे हैं। उसने कहा है, पहली स्थिति तो आदमी की है, बहुत मैं; मल्टी आइज। आपके भीतर एक मैं भी नहीं है अभी, बहुत मैं हैं । आपको खयाल भी नहीं होगा कि आप एक आदमी नहीं हैं। आपके भीतर कई ईगो, कई मैं हैं । इसलिए सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ हो जाता है। सुबह एक बात का वचन देते हैं, दोपहर भूल जाते हैं। सांझ एक बात तय करते हैं, सुबह विस्मृत हो जाती है। आज तय किया था क्रोध नहीं करेंगे और क्रोध हो गया। 347 गुरजिएफ कहता है, जिस मैं ने तय किया था कि क्रोध नहीं करूंगा, वह मैं और है । और जिस मैं ने क्रोध किया, वह मैं और है | आपके भीतर भीड़ है, आपके भीतर एक मैं नहीं है। इसलिए आपकी बात का कोई भरोसा नहीं है। गुरजिएफ के पास कोई आता और वह कहता कि मैं आया हूं साधना करने, तो गुरजिएफ कहता, तुम्हारी बात का भरोसा कर सकता हूं? तुम अभी साधना करने आए हो, सुबह, कल सुबह भी साधना करने के लिए तत्पर रहोगे ? तुम्हें पक्का है कि तुमने तय किया था कि क्रोध नहीं करूंगा, तो फिर नहीं ही किया ? तब वह आदमी डगमगा जाएगा। वह कहेगा, तय तो बहुत बार किया कि क्रोध न करूंगा, लेकिन हो नहीं पाता। एक बूढ़े आदमी ने मुझे कलकत्ते में कहा- बड़े प्रतिष्ठित आदमी थे मुल्क के- - कि मैं ब्रह्मचर्य का व्रत जीवन में चार बार ले चुका हूं! अब ब्रह्मचर्य का व्रत एक ही बार लिया जा सकता है। चार बार ब्रह्मचर्य के व्रत का क्या मतलब होता है ? जो मेरे साथ सज्जन थे, वे बहुत प्रभावित हुए । उनके खयाल में ही न आया; उनकी बुद्धि में प्रवेश न हुआ कि चार बार ब्रह्मचर्य के व्रत का क्या मतलब होता है ! मैं बूढ़े सज्जन से पूछा कि फिर पांचवीं बार आपने क्यों नहीं लिया? तो उन्होंने कहा, मैं हार गया चार बार और फिर मैंने लेना ही छोड़ दिया, व्रत लेना छोड़ दिया ! आप व्रत लेते हैं, लेकिन आपका व्रत टिक नहीं सकता। गुरजिएफ कहता है, आपके भीतर कई मैं हैं। एक मैं नहीं है आपके भीतर, मल्टी आइज, पोलीसाइकिक। महावीर ने ठीक शब्द उपयोग किया है, बहुचित्तवान । एक आदमी के भीतर बहुत-से चित्त हैं । और महावीर के इस बहुचित्तवान की स्वीकृति अभी | पश्चिम के मनोविज्ञान ने देनी शुरू की है। मनोविज्ञान भी कहा
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy