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________________ परम गोपनीय - मौन मत कहने दें कि सुंदर है। मत कहने दें कि बड़ी सुगंध आ रही है। मत कहने दें कि अच्छा है। कोई निर्णय नहीं । कोई वक्तव्य नहीं । शब्द को कहें कि तू चुप रह, मेरी आंखें हैं। मैं मौजूद हूं। मुझे देखने दे। लाओत्सू एक दिन सुबह घूमने गया है। लाओत्सू रोज सुबह घूमने जाता है, एक मित्र उसके साथ जाता था। मित्र को तो पता था कि लाओत्सू से एक भी शब्द बीच में बोलना खतरनाक है। लेकिन मित्र के घर एक मेहमान था, वह उसको लेकर चला गया। लाओत्सू चुप था, मित्र चुप था, तो मेहमान भी बेचारा चुप रहा। दो घंटे की लंबी यात्रा में, जब सुबह सूर्य निकलने लगा आकाश में, और पक्षी गीत गाने लगे, और फूल खिलने लगे, तो उसने सिर्फ इतना ही कहा, कितनी सुंदर सुबह है— मेहमान ने ! लाओत्सू ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि इस बकवासी आदमी को साथ क्यों ले आए ! उस मित्र ने कहा, हद हो गई! सिर्फ इतना ही उस बेचारे ने कहा कि कितनी सुंदर सुबह है! लाओत्सू ने कहा, लेकिन इतनी दीवाल भी बाधा बन जाती है। सूरज था। सुबह थी। हम भी थे। भी था। कहने की क्या जरूरत थी ? कोई हम अंधे थे? कि हमको पता नहीं था कि सुबह नहीं है, कि सुंदर नहीं है ? कहने की क्या जरूरत थी ? उन शब्दों ने सुबह की शांति को बुरी तरह भंग कर दिया। दुबारा इसे साथ मत लाना। यह जो लाओत्सू कह रहा है, निश्चित ही, जब सूरज उगता है और आप कह देते हैं, सुंदर है, तो आपको पता नहीं होगा कि आपके और सूरज के बीच शब्द की एक दीवाल आ गई। हटा दें शब्दों को बीच से | आप खाली हो जाएं। उधर सूरज को उगने दें, . इधर आप रह जाएं, बीच में कुछ भी न हो। तब आपको पहली दफा सूरज का संस्पर्श मिलेगा। तब पहली दफा सूरज के साथ आप आत्मसात हो जाएंगे। तब पहली दफा सूरज और आपके बीच में कोई भी नहीं होगा। सूरज और आपके बीच पहली दफा सेतु निर्मित होगा । या गुलाब के फूल और आपके हृदय के बीच पहली दफा एक संगीत निर्मित होगा। अगर ऐसा ही मौन समस्त अस्तित्व के प्रति आ जाए, तो परमात्मा और हमारे बीच संबंध निर्मित होता है। जिस दिन शब्द न रह जाएं, समाप्त हो जाएं, अलग गिर जाएं, हम और अस्तित्व ही रह जाएं... । अस्तित्व है चारों ओर, हम हैं यहां, बीच में एक शब्दों की दीवाल है। भाषा बड़ी उपयोगी है संसार में, बड़ी बाधा है परमात्मा में। जहां दूसरे से संबंधित होना है, भाषा जरूरी है। जहां अपने से संबंधित होना है, भाषा खतरनाक है। जहां दूसरे से मिलना है, वहां भाषा के बिना कैसे मिलिएगा? लेकिन जहां अपने से ही मिलना है, वहां | भाषा की क्या जरूरत है? लेकिन हम दूसरे से मिल-मिलकर इतने आदी हो गए हैं भाषा के, कि जब अपने से मिलने जाते हैं, तब भी भाषा का बोझ लेकर पहुंच जाते हैं। अगर परमात्मा से मिलना है, तो भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। वहां मौन ही भाषा है। वहां चुप हो जाना ही बोलना है। वहां मौन हो जाना ही संवाद है। कृष्ण कहते हैं, भावों में अगर मुझे खोजना हो, तो मैं मौन हूं। और ज्ञानवानों का तत्व - ज्ञान मैं ही हूं। यह आखिरी प्रतीक इस आयाम में । ज्ञानवानों का तत्व - ज्ञान मैं ही हूं। तत्व- ज्ञान के संबंध में थोड़ी बात मैंने आपसे कही । तत्व-ज्ञान से अर्थ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है । तत्व-ज्ञान से अर्थ हैं, सत्य का निजी अनुभव, अपना अनुभव। आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा विचारक, गणितज्ञ, एक फकीर गुरजिएफ के पास गया। उसने गुरजिएफ से कहा कि मैं आपसे कुछ पूछने आया हूं। गुरजिएफ ने उसे एक कागज दे दिया उठाकर और कहा कि इस कागज पर पहले तुम लिख दो; जो-जो तुम जानते हो, वह तुम लिख दो। फिर तुम जो नहीं जानते, वह मुझसे पूछना। अगर तुम पहले से ही जानते हो, तो पूछने की झंझट की कोई जरूरत नहीं है। तो पहले तुम लिख दो, जो-जो तुम जानते हो। उसकी हम चर्चा ही नहीं करेंगे; उसे हम उठाएंगे ही नहीं । आस्पेंस्की बड़ा लेखक था। और गुरजिएफ से मिलने के पहले | उसने एक बहुत अदभुत किताब लिखी थी, जो दुनिया की तीन बड़ी किताबों में एक है। पश्चिम में तो उस किताब का जोड़ खोजना बहुत मुश्किल है। | उसने एक किताब लिखी थी, टर्शियम आर्गानम। और निष्ठापूर्वक, किसी अहंकार से नहीं, उसने अपनी किताब में वक्तव्य दिया था कि इसके पहले दो किताबें और लिखी गई हैं। एक किताब लिखी है अरस्तू ने, आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, पहला सिद्धांत। दूसरी किताब लिखी है बेकन ने, नोवम आर्गानम, नया सिद्धांत। और तीसरी किताब मैं लिखता हूं, टर्शियम आर्गानम, तीसरा सिद्धांत। और उसने बड़ी विनम्रता से, बिना किसी अहंकार के कहा था कि पहला सिद्धांत भी जब जगत में नहीं था, तब भी यह 225
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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