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________________ 03 गीता दर्शन भाग-508 परमात्मा का ही आगमन शुरू हो जाता है। और जो व्यक्ति अपनी जिसको हम धार्मिक कहते हैं, तथाकथित धार्मिक, वह धार्मिक संवेदना के सभी द्वार खुले रख दे, उस व्यक्ति को, परमात्मा भी | कम, पैथालाजिकल, रुग्ण ज्यादा है। और सब तरफ से अपने को मुझसे मिलने को आतुर है, इसका पता चलेगा। बंद कर लेता है। बुद्धि से यह पता नहीं चलेगा। बुद्धि बहुत आंशिक घटना है, | ठीक धार्मिक तो सब तरफ से अपने को खोल देगा। ठीक और बहुत पुरानी और बासी। संवेदना ताजी, जीवंत घटना है। और धार्मिक तो जहर में भी अमृत को खोज लेगा। और गलत धार्मिक मजा यह है कि बुद्धि तो उधार भी मिल जाती है, संवेदना उधार नहीं अमृत में भी जहर को खोज लेता है। ठीक धार्मिक तो निकृष्ट में भी मिलती। अगर पानी को छूकर मेंने जाना है कि वह ठंडा हे या गर्म, । श्रेष्ठ को अनुभव कर लेगा, और गलत धार्मिक श्रेष्ठ में भी निकृष्ट अगर पानी को छूकर मैंने जाना है कि मैत्रीपूर्ण है कि मैत्रीपूर्ण नहीं, को ही पकड़ पाता है। तो यह मैं ही जान सकता हूं। पानी की ठंडक या पानी की गर्मी, या यह हम पर निर्भर करता है। अगर हमारी संवेदनशीलता प्रगाढ़ पानी की मैत्री या अमैत्री, मेरा ही अनुभव होगी। यह दूसरे के है, तीव्र है, तो हम जीवन में कहीं से भी प्रवेश कर सकते हैं। और अनुभव से मैं नहीं जान सकता हूं। परमात्मा हममें कहीं से भी प्रवेश कर सकता है। परमात्मा की • संवेदनाएं उधार नहीं मिलतीं। लेकिन बुद्धि उधार मिल जाती है। विभूति, उसका ऐश्वर्य हमारे स्मरण में हो, हम उसके ऐश्वर्य को हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय बद्धि को उधार देने का काम कर स्वीकार करने की क्षमता जटाएं. इतने विनम्र हों कि उसके ऐश्वर्य रहे हैं। बुद्धि उधार मिल जाती है; शब्द उधार मिल जाते हैं; को स्वीकार कर सकें और इतने संवेदनशील हों कि उसकी जो संवेदनाएं स्वयं जीनी पड़ती हैं। और इसीलिए तो हम संवेदनाओं | योगशक्ति है, वह भी हमारी प्रतीति का विषय बन सके। से धीरे-धीरे टूट गए। क्योंकि हम इतने उधार हो गए हैं कि जो | | तो कृष्ण ने कहा है, वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में उधार मिल जाए, बाजार में खरीदा जा सके, वह हम खरीद लेते हैं। | ही एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ऐसा मिल जाए, वह हम ले लेते हैं, चाहे जिंदगी ही उसके जो पुरुष है, वह निश्चल ध्यान योग द्वारा मुझमें ही एकीभाव से बदले में क्यों न चुकानी पड़े। लेकिन जो खुद जानने से मिलता है, स्थित हो जाता है, यह निस्संदिग्ध है। उतनी झंझट, उतना श्रम कोई उठाने को तैयार नहीं है। इसमें एक बात है. निश्चल ध्यान योग द्वारा। तो हमने धीरे-धीरे जीवन के सब संवेदनशील रूप खो दिए। व्यक्ति का परमात्मा की तरफ जाने का जो उपक्रम है, वह जाने और उन्हीं की वजह से हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा भी | । जैसा कम और ठहर जाने जैसा ज्यादा है। व्यक्ति की परमात्मा की पुकारता है, वह भी आता है, वह भी हम से मिलने को आतुर है। तरफ जो यात्रा है, वह दौड़ने जैसी कम और सब भांति रुक जाने चारों तरफ से उसके हाथ हमारी तरफ आते हैं, लेकिन हमें जैसी ज्यादा है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। संवेदनहीन पाकर वापस लौट जाते हैं। जगत में हम जो भी खोजते हैं, वह दौड़कर खोजते हैं। इसलिए परमात्मा की योगशक्ति का अर्थ आपको तभी पता चलना शुरू जगत में जो जितनी तेजी से दौड़ सकता है, उतना सफल होगा। जो होगा, जब आप उसके मिलन की संभावनाएं जहां-जहां हैं, | दूसरों की लाशों पर से भी दौड़ सकता है, वह और भी ज्यादा वहां-वहां अपने हृदय को खोलें। सफल होगा। जो पागल होकर दौड़ सकता है, उसकी सफलता लेकिन जिसको हम साधक कहते हैं आमतौर से, वह तो और | | सुनिश्चित हो जाएगी, जगत में। जितनी तेजी से दौड़ेंगे, उतना बंद कर लेता है। वह अपनी संवेदनाएं और सिकोड़ लेता है। वह | ज्यादा इस जगत में आप सफल हो जाएंगे। लेकिन भीतर आप अपने द्वार-दरवाजे और घबड़ाहट से सब तरफ खीलें ठोक देता है | | विक्षिप्त और पागल भी हो जाएंगे। ठीक परमात्मा की तरफ जाने कि कहीं से कुछ भीतर न आ जाए। सौंदर्य देखकर डरता है कि कहीं | | वाली बात बिलकुल दूसरी है। वहां तो जो जितना शांति से खड़ा वासना न जग जाए। सुंदर फूल देखकर डरता है कि कहीं यह हो जाता है, उतना ज्यादा सफल हो जाता है। शारीरिक सौंदर्य का स्मरण न बन जाए। गीत सुनने में भयभीत होता जब आप दौड़ते हैं, तो आपका मन भी दौड़ता है। मन दौड़ता है, क्योंकि गीत की कोई गहरी कड़ी भीतर छिपी किसी वासना को है, इसीलिए तो आप दौड़ते हैं। आप तो पीछे जाते हैं मन के मन जगा न दे। संगीत से डरता है। सब तरफ से भयभीत हो जाता है। बहुत पहले जा चुका होता है। अगर आपको लाख रुपए पाने हैं,
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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