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________________ ॐ ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य तो मन तो पहुंच गया लाख पर; अब आपको दौड़कर यात्रा पूरी संसार में कुछ पाना हो तो दौड़ो; और परमात्मा में कुछ पाना हो कर लेनी है। मन तो पहंच चका. अब आप आ जाएं। | तो ठहरो, स्टाप। जहां हो भीतर, वहीं ठहराव हो जाए; कोई चीज अगर आपको एक बड़ा मकान बनाना है, मन ने बना डाला। | दौड़ती न हो, कोई तरंग न उठती हो। बड़ा कठिन है। हम तरंगें अब आप जो और जरूरी काम रह गए करने के, वे कर डालें और | बदल सकते हैं, वह आसान है। वहां पहुंच जाएं। लक्ष्य तो मन पहले ही पा लेता है, फिर शरीर मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम समझे। लेकिन कुछ उसके पीछे घसिटता रहता है। और जब आप बड़े महल में पहुंचते सहारा चाहिए। आप कहते हो, धन के बाबत मत सोचो, नहीं हैं, तब तक आपके मन ने दूसरे बड़े महल आगे बना लिए होते हैं। सोचेंगे। लेकिन फिर हम क्या सोचें? कुछ सोचने को दें। तो हम धर्म इसलिए मन आपको कहीं रुकने नहीं देता, दौड़ाता रहता है। के बाबत सोचेंगे। आप कहते हैं, हिसाब-किताब, खाता-बही को ___ मन दौड़ता है, इसलिए आप दौड़ते हैं। आपकी दौड़ आपके भूल जाएं; ठीक। तो हमें कोई रामायण, कोई महाभारत, कोई गीता, मन का ही प्रतिफलन है। जब मन ठहर जाता है, तो आप भी ठहर | | कुछ हमें पकड़ा दें, हम उसमें लग जाएं। लेकिन कुछ चाहिए! जाते हैं। परमात्मा में जिसे जाना है, उसे संसार से ठीक उलटा ___ ध्यान रहे, खाते-बही में लगा हुआ मन, दूसरा खाता-बही मिल उपक्रम पकड़ना पड़ता है। उसे ठहर जाना पड़ता है, उसे रुक जाना | जाए, तो उसे कोई अड़चन नहीं है; उसमें लग जाएगा। नाम कुछ पड़ता है। भी हो, उसमें लग जाएगा। लेकिन उससे कहो, नहीं, किसी में भी निश्चल ध्यान योग का अर्थ है, मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई | मत लगो। बस, खाली रह जाओ थोड़ी देर। तो बहुत घबड़ाहट दौड़ नहीं है। मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई भविष्य नहीं है। मन | होती है कि यह कैसे हो सकता है! यह कैसे हो सकता है! की ऐसी अवस्था, जहां कोई लक्ष्य नहीं है। मन की ऐसी अवस्था एक पागल आदमी पश्चिम की तरफ दौड़ रहा है। हम उससे कि मन कहीं आगे नहीं गया है. यहीं है. अभी. इसी क्षण. कहीं कहते हैं. रुक जाओ। व्यर्थ मत दौडो। वह कहता है. मैं रुक सकता नहीं गया है। इसका नाम है, निश्चल ध्यान योग। हूं, पश्चिम की तरफ नहीं दौडूंगा; तो मुझे पूरब की दिशा में दौड़ने आमतौर से लोग सोचते हैं, ध्यान का मतलब है, परमात्मा पर | दो। मगर दौड़ने दो। ध्यान लगाना। अगर आपने परमात्मा पर ध्यान लगाया, तो ___ अब पागलपन उसका पश्चिम में दौड़ने के कारण नहीं है, दौड़ने परमात्मा तो बहुत दूर है, आपका ध्यान दौड़ेगा; परमात्मा की तरफ | | के कारण है। तो पूरब में दौड़े, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; कि दक्षिण दौड़ेगा, लेकिन दौड़ेगा। और जब तक चित्त किसी भी तरफ | | में दौड़े, कि उत्तर में दौड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन वह पागल दौड़ता है, तब तक परमात्मा को नहीं जान सकता। एक बहुत | यह कहता है कि पश्चिम से दिक्कत होती है? पश्चिम न दौड़ेंगे! पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी बात है। पूरब दौड़ने दो, दक्षिण दौड़ने दो, उत्तर दौड़ने दो। कहीं भी दौड़ने जो लोग परमात्मा को पाना चाहते हैं, उन्हें परमात्मा को पाने की दो। पूरब को छोड़ देते हैं, लेकिन दौड़ को नहीं छोड़ सकते। चिंता भी छोड़ देनी पड़ती है। वह चिंता भी बाधा है। वह भी वासना | पागलपन दौड़ में है, पूरब में नहीं है। धन में पागलपन नहीं है। वासना है, लेकिन वासना है। तो जो परमात्मा को भी ध्यान रहे। इसलिए जनक जैसा आदमी धन के बीच भी गैर-पागल पाने के लिए बेचैन है...। कोई धन पाने के लिए बेचैन है, कोई | हो सकता है। धन में कोई पागलपन नहीं है। यश में भी कोई यश पाने के लिए बेचैन है, कोई ईश्वर को पाने के लिए बेचैन है। पागलपन अपने में नहीं है। पागलपन दौड़ में है। धन का पागल लेकिन बेचैनी है। जब कभी-कभी धन से ऊब जाता है और सभी चीजों से जिंदगी . ध्यान रहे, धन मिल सकता है बेचैनी के साथ। यश भी मिल में हम ऊब जाते हैं-धन हो गया, हो गया, दौड़ भी हो गई, तो सकता है बेचैनी के साथ। परमात्मा नहीं मिल सकता है बेचैनी के | वह कहता है, अब धर्म के लिए दौड़ेंगे, लेकिन दौड़ेंगे जरूर। साथ। क्योंकि परमात्मा को पाने की तो पहली शर्त ही यही है कि | | दुनिया के तर्क अंत तक पीछा करते हैं। दौड़ एक तर्क है, कि चैन आ जाए, भीतर सब चुप और मौन हो जाए, सब ठहर जाए। सब चीजें दौड़कर पाई जा सकती हैं। कोई चीज ऐसी भी है, जो दौड़ ईश्वर को वे पाते हैं, जो खड़े हो जाते हैं, ठहर जाते हैं, रुक जाते | | छोड़कर पाई जा सकती है, वह हमारे तर्क का हिस्सा नहीं है। हैं। उलटी बात है। सूत्र बना सकते हैं हम। परमात्मा अगर कहीं और होता, तो आपको दौड़कर मिल जाता।
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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