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________________ गीता दर्शन भाग- 58 जाए, तो अर्जुन स्वयं कृष्ण हो जाएगा। कृष्ण हो जाए, तो ही संतुष्ट | गई हो डिटेल्स में, वह उसको भी पता कर ले। कुछ बातें चूक गई हो सकेगा। उसके पहले कोई संतोष नहीं है। उसके पहले अतृप्ति हों, उनसे भी परिचित हो जाए। किन्हीं सिद्धांतों में कुछ बातें बेबूझ बढ़ती चली जाएगी। | रह गई हों, धुंधली हों, उन्हें भी साफ कर ले। इसलिए वह कहता है कि हे जनार्दन, अपनी योगशक्ति को, | | बुद्ध ने उससे कहा कि मैं तुझे कुछ और विस्तार से नहीं कहूंगा। अपने ऐश्वर्य को, अपनी विभूतियों को फिर से विस्तारपूर्वक कहिए। | तू जितना विस्तार जानता है, उसे भी छीन लेना चाहता हूं। तू खाली अभी-अभी कृष्ण ने बातें कही हैं, अभी-अभी-ऐश्वर्य की, | हो जाए, तो शायद कभी तेरे जीवन में ज्ञान की घटना घट सके। योग की, विभूति की, परमात्मा की परम शक्ति की, उसके परम विस्तार का मतलब ही होता है तथ्यात्मक। एक चीज के संबंध विस्तार की। लेकिन अर्जुन कहता है, और विस्तार से कहिए। में हम और जान लें। चारों तरफ घूमकर और पता लगा लें। विस्तार आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती। और एक | का मूल्य नहीं है; विस्तार से परिचय होता है, एक्सटेंशन, फैलाव। बात ध्यान देने की है कि अर्जुन कहता है, विस्तारपूर्वक कहिए। ज्ञान विस्तार से नहीं होता. गहराई से होता है। हम सबको यह खयाल होता है कि अगर कोई बात हमारी समझ | ज्ञान होता है इनटेंसिव, एक्सटेंसिव नहीं। ज्ञान में किसी एक ही में न आती हो, तो विस्तारपूर्वक समझाने से शायद समझ में आ | बिंदु में गहरा उतरना पड़ता है; और विस्तार में एक बिंदु के जाए। यह भ्रांति है। दो तरह की बातें हैं इस जगत में। कुछ बातें हैं, | | आस-पास अनेक बिंदुओं पर यात्रा करनी पड़ती है। अगर मुझे एक जो आपको विस्तारपूर्वक कही जाएं तो आपकी समझ में आ फूल के संबंध में ज्यादा जानना है, तो फूल के संबंध में जितनी जाएंगी। और कुछ बातें हैं, जो विस्तारपूर्वक कही जाएं तो आपको किताबें लिखी गई हों, उनको जानूं। और अगर मुझे फूल को जानना पहले जितनी समझ में आती थीं, उतनी समझ भी खो जाएगी! | है, तो फूल में ही डूब जाऊं, उतर जाऊं, लीन हो जाऊं; विस्तार जैसा मैंने कल आपको कहा कि दो प्रकार के ज्ञान हैं, परिचय | को छोड़ दूं। और ज्ञान। जो बातें परिचय की हैं, उनको विस्तार से कहने पर वे | परिचय विस्तार लेता है, ज्ञान गहराई लेता है। परिचय ऐसा है, समझ में आ जाएंगी। क्योंकि परिचय का ही सवाल है, थोड़ा और | जैसे कोई आदमी नदी के ऊपर तैरता हो, दूर तक तैरता हो। और विस्तार से बताएंगे, तो खयाल में आ जाएगा। लेकिन जिसे मैंने | | ज्ञान ऐसा है, जैसे कोई आदमी नदी में डुबकी लगाता हो। तो डुबकी ज्ञान कहा, जानना कहा, वह जानना आपको विस्तार से कितना ही | | लगाने वाले को एक ही जगह डूब जाना पड़ता है। और लंबा कहा जाए, समझ में नहीं आएगा। बल्कि जितना विस्तार से आप | | फैलाव करने वाले को पानी की सतह पर दूर-दूर तक हाथ मारने सुनेंगे, उतना ही पता चलेगा, कम समझ में आ रहा है। पड़ते हैं। मौलुंकपुत्त, एक बहुत बुद्धिमान और पंडित आदमी, बुद्ध के | | जो लोग ज्ञान को विस्तार समझते हैं, वे ज्ञान से चूक जाएंगे। पास गया। ज्ञानी था और ज्ञान के दंभ से भी भरा था। जानता था | | जो लोग ज्ञान को गहराई समझते हैं, इनटेंसिटी समझते हैं, वे लोग शास्त्रों को और यह भी जानता था कि मैं जानकार हूं। बुद्ध के पास | ज्ञान को उपलब्ध हो पाते हैं। एक छोटे-से बिंदु में पूरी तरह डूब वह आया और उसने बुद्ध से कहा कि मुझे कुछ ज्ञान की बातें दें। | जाने से ज्ञान उपलब्ध होता है। और बड़ी दूर तक भटकने से विस्तार मैं भिक्षा का पात्र लेकर आया हूं; मुझे कुछ ज्ञान दें। उपलब्ध होता है। आप बहुत-सी बातें जान सकते हैं और फिर भी बुद्ध ने कहा, तेरा भिक्षा का पात्र पहले से ही बहुत भरा हुआ है | | जानने से वंचित रह जाएं। और ज्ञान तेरे पास जरूरत से ज्यादा है। सच तो यह है कि ज्ञान के सुकरात ने मरने के पहले कहा है कि जब मैं बच्चा था, तो मैं कारण तुझे अपच हो गया है। अगर मैं तेरा कल्याण करना चाहता | समझता था कि मैं सब कुछ जानता हूं। जब मैं जवान हुआ, तो मैंने हूं, तो पहले तो मुझे तेरा ज्ञान तुझसे छीनना पड़ेगा। और अगर मैं | समझा कि बहुत कुछ है, जो मैं नहीं जानता हूं। और अब जब मैं तुझे पुनः अज्ञानी बनाने में समर्थ हो जाऊं, तो शायद तेरे जीवन में | बूढ़ा हो गया हूं, तो मैं कह सकता हूं स्पष्ट घोषणा के साथ कि मैं कोई घटना घट सके, जहां ज्ञान का दीया जले। कुछ भी नहीं जानता हूं। बच्चा था, तब सोचता था, सब जानता हूं। मौलुंकपुत्त को बहुत अजीब मालूम पड़ा। वह गुरुओं के पास | | सभी बच्चे ऐसा सोचते हैं। सभी बच्चे ऐसा सोचते हैं कि सब जाता था इसलिए कि और विस्तार से जान ले; और जो कमी रह जानते हैं। और जो बूढ़े भी ऐसा सोचते हैं कि सब जानते हैं,
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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