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8 शास्त्र इशारे हैं 8
धर्मश
___ और एक मजे की बात है। जिन वचनों को सुनने से कभी तृप्ति | | संतोष बिलकुल ही मिथ्या होता है। जब तक आपके जीवन में एक नहीं होती, उसका अर्थ ही यह हुआ कि वे वचन किसी ऐसी जगह | | परम असंतोष न जगे, तब तक आपका बाहरी संतोष झूठा होगा। की तरफ इशारा कर रहे हैं, जहां पहुंचकर ही तृप्ति हो सकती है। जब तक आपकी सारी असंतोष की शक्ति परमात्मा की तरफ न लग और जिन वचनों को सुनकर तृप्ति हो जाती है, उन वचनों से ऊब | | जाए, तब तक संसार के प्रति आपकी संतोष की बातें सिर्फ धोखा और बोर्डम पैदा हो जाएगी। जिन वचनों को सुनकर तृप्ति हो जाती | | होंगी। आदमी अपने को समझा-बुझाकर संतुष्ट हो सकता है। है, उनसे ऊब पैदा हो जाएगी।
भयभीत आदमी डरता भी है। चिंतित आदमी परेशान भी होता है। यह बहुत मजे की बात है कि इस पृथ्वी पर सभी तरह के वचन | | तनावग्रस्त आदमी पीड़ा भी अनुभव करता है। इन सारी पीड़ाओं, सुनकर ऊब पैदा होने लगेगी; सिर्फ उन वचनों को छोड़कर, जिन्हें चिंताओं और भय के कारण कोई व्यक्ति अपने को समझा-बुझाकर सुनने से ही कुछ भी नहीं मिलता है, सिर्फ प्यास ही मिलती है। संतुष्ट भी हो सकता है। लेकिन वह संतोष झूठा है।
शायद धर्मशास्त्र की परिभाषा मेरी दृष्टि में यही है। धर्मशास्त्र वास्तविक संतोष का जन्म होता है भीतर के एक गहरे असंतोष मैं उस शास्त्र को कहता हूं, जिसे पढ़कर, जिसे समझकर, तृप्ति न | से। एक नए आयाम में, एक न्यू डायमेंशन में जब आपकी सारी मिले, और अतृप्ति बढ़ जाए। जिस शास्त्र को पढ़कर तृप्ति मिले, | असंतोष की आग दौड़ने लगती है, तब आप बाहर के प्रति वह साहित्य होगा, धर्मशास्त्र नहीं। जिस शास्त्र को पढ़कर सुख | बिलकुल संतुष्ट हो जाते हैं। इसलिए नहीं कि आपने संतोष धारण मिले, वह साहित्य की बड़ी कृति होगी, कलाकृति होगी, लेकिन | कर लिया, बल्कि इसलिए कि बाहर की चीजें असंगत और व्यर्थ
नहीं। धर्मशास्त्र तो प्यास देगा जलन देगा आग देगा। हो गई हैं। उनका कोई भी मल्य नहीं रहा है। वे निर्मल्य हो गई हैं। सारे प्राण जलने लगेंगे। और अतृप्त हो जाएंगे आप। | उनसे अब कोई बेचैनी नहीं होती। इतनी बड़ी बेचैनी पैदा हो गई है
आमतौर से हम सुनते हैं कि धार्मिक आदमी बड़े संतुष्ट होते हैं। | | कि छोटी बेचैनियां व्यर्थ हो गई हैं। वह बात अधूरी है और एक अर्थ में झूठी है। वे हमें संतुष्ट दिखाई लेकिन धर्मशास्त्र को पढ़ने से आपको कोई तृप्ति नहीं मिल पड़ते हैं उन चीजों के संबंध में, जिन चीजों के संबंध में हम सकती। आपको अतृप्ति मिलेगी। नई अतृप्ति मिलेगी। एक नई असंतुष्ट हैं। और हमें उनका असंतोष दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि खोज की आकांक्षा जगेगी। वे उन चीजों के संबंध में असंतुष्ट हैं, जिनकी हमारे मन में कोई | | तो धर्मशास्त्र मैं कहता हूं उस शास्त्र को, जो आपके सारे वासना नहीं है। लेकिन धार्मिक आदमी महा असंतुष्ट होता है। | असंतोष को इकट्ठा करके परमात्मा की ओर लगा दे। जो आपकी परमात्मा को पाने को, मुक्ति पाने को, सत्य पाने को, उसके प्राण सारी वासनाओं को खींच ले और एक ही वासना में निमज्जित कर एक लपट बन जाते हैं असंतोष के।
| दे। जो आपकी सारी इच्छाओं को इकट्ठा कर ले, एकाग्र कर ले हां, धन पाने में उसका असंतोष नहीं होता। यश पाने में उसका और एक ही आयाम में प्रवाहित कर दे। जो आपके प्राणों की सारी असंतोष नहीं होता। उसके पास जो भी है, वह संतुष्ट मालूम पड़ता | बिखरी हुई किरणों को इकट्ठा कर ले और एक लपट बन जाए और है। लेकिन इसका कारण बहुत गहरा है। इसका कारण यह है कि | वह लपट प्रभु की यात्रा पर, परम सत्य की यात्रा पर निकल जाए। उसका सारा असंतोष परमात्मा पर लग जाता है। इन छोटी-मोटी यह जो असंतोष है, वही अर्जुन को भी अनुभव हो रहा है। चीजों पर असंतोष देने को उसके पास बचता नहीं। लेकिन हमें वह | लेकिन शायद उसे साफ नहीं है। शायद उसने जब यह वचन कहा संतुष्ट मालूम पड़ता है। क्योंकि जिन चीजों से हम परेशान हैं, अगर | है, तो उसका भी प्रयोजन यही है कि आपके वचन बहुत मधुर हैं, हमारा एक पैसा खो जाए, तो हम असंतुष्ट होते हैं; उसका सब भी | | बहुत प्रीतिकर हैं, सुन-सुनकर भी मन भरता नहीं; आप इन्हें और खो जाए, तो भी असंतुष्ट नहीं मालूम पड़ता। तो हम कहते हैं, कहे जाएं। कितना संतोषी आदमी है! लेकिन हमें उसके भीतर की आग का कोई लेकिन अर्जुन को पता हो या न पता हो, ये कृष्ण के वचन भी पता नहीं है। यह संतोष उस भीतरी असंतोष का ही परिणाम है। जन्मों-जन्मों तक भी वह सनता रहे. तो भी इनको सनकर ही संतोष यहां एक फर्क खयाल में ले लेना चाहिए।
| नहीं मिलेगा। इनके अनुकूल रूपांतरित होना पड़ेगा, इनके अनुकूल कुछ लोग अपने को समझा-बुझाकर संतुष्ट रहते हैं। उनका अर्जुन को बदलना पड़ेगा। और अगर इनके अनुकूल अर्जुन बदल
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