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________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। ९ ।। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। १० ।। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता । । ११ ॥ और वे निरंतर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा ! और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ में ही निरंतर रमण करते हैं। उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान रूप योग देता हूं, जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ अज्ञान से उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूं। म न की दो अवस्थाएं हैं, एक दौड़ता हुआ मन, एक ठहरा हुआ मन । दौड़ता हुआ मन, निरंतर ही जहां होता है, वहां नहीं होता। ऐसा समझें कि दौड़ता हुआ मन कहीं भी नहीं होता। दौड़ता हुआ मन सदा ही भविष्य में होता है । आज नहीं होता, अभी नहीं होता, यहां नहीं होता । कल, आगे, कहीं और, कल्पना में, सपने में, कहीं दूर भविष्य में होता है। और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है वर्तमान का, अभी का, इसी क्षण का । जब कहता हूं इसी क्षण का, इतना कहने में भी वह क्षण वर्तमान का जा चुका। इतनी भी देर हम वर्तमान के क्षण को चूक जाते हैं। जानने में जितना समय लगता है, उतने में भी वर्तमान चुका होता है। एक क्षण हमारे हाथ में है अस्तित्व का, लेकिन मन सदा वासना में, भविष्य में होता है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं । इसलिए दौड़ता हुआ मन कहीं होता ही नहीं। जहां हो सकता है, वहां होता नहीं; और जहां हो ही नहीं सकता, वहां होता है। वर्तमान में हो 48 सकता था, लेकिन वर्तमान में दौड़ता हुआ मन नहीं होता। आप वर्तमान में दौड़ नहीं सकते; जगह नहीं है, स्पेस नहीं है। दौड़ने के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए। वासना के लिए अनंत विस्तार चाहिए। वर्तमान का क्षण बहुत छोटा है। उस छोटे-से क्षण में आपकी वासना न समा सकेगी। यह जो दौड़ता हुआ मन है, यह दौड़ता ही रहता है। कहीं भी ठहरने का इसे उपाय नहीं है। ठहर सकता है, वर्तमान में, वहां ठहरता नहीं। और भविष्य तो है नहीं। वहां सिर्फ दौड़ सकता है। ठहरने की वहां कोई सुविधा नहीं है। यह दौड़ता हुआ मन ही हमारी बीमारी है, रोग है । अगर अधार्मिक आदमी की हम कोई परिभाषा करना चाहें, तो वह परिभाषा ऐसी नहीं हो सकती है। वह आदमी, जो ईश्वर को | न मानता हो। क्योंकि ऐसे बहुत-से व्यक्ति हुए हैं, जो ईश्वर को नहीं मानते और धार्मिक हैं। महावीर हैं, बुद्ध हैं, वे ईश्वर को नहीं मानते हैं, पर परम धार्मिक हैं। उनकी आस्तिकता में रत्तीभर भी संदेह नहीं । और अगर बुद्ध और महावीर की धार्मिकता में संदेह होगा, तो इस पृथ्वी पर फिर कोई भी आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। अधार्मिक आदमी उसे नहीं कह सकते हैं, जो ईश्वर को न मानता हो। अधार्मिक आदमी उसे भी नहीं कह सकते, जो वेद को न मानता हो, बाइबिल को न मानता हो, कुरान को न मानता हो । | अधार्मिक आदमी केवल उसे कह सकते हैं कि जिसके पास केवल दौड़ता हुआ मन है, ठहरे हुए मन का जिसे कोई अनुभव नहीं । फिर वह कुछ भी मानता हो - ईश्वर को मानता हो, आत्मा को मानता हो; वेद को, कुरान को, बाइबिल को मानता हो – अगर दौड़ता | हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक नहीं है। और फिर चाहे वह कुछ भी न मानता हो, लेकिन अगर ठहरा हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक है। क्योंकि मन जहां ठहरता है, वहीं तत्क्षण उस परम सत्ता से संबंध जुड़ जाता है। हम उसे क्या नाम देते हैं, यह गौण बात है। कोई उसे ईश्वर कहे, यह उसकी मर्जी । और कोई उसे आत्मा कहे, यह भी उसकी मर्जी । और कोई उसे कोई भी नाम न देना चाहे, यह भी उसकी मर्जी । और कोई उसके संबंध में चुप रह जाए, यह भी उसकी मर्जी । कोई उसे शून्य कहे, कोई उसे मिट जाना कहे, कोई उसे पूरा हो जाना कहे, यह उसकी मर्जी की बात है। लेकिन जहां मन ठहरा, वहीं आदमी धार्मिक हो जाता है। इस मन को ठहराने के लिए कल के सूत्र में कृष्ण ने जो शब्द
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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