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________________ ॐ ध्यान की छाया है समर्पण उपयोग किया है, उसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें, तो इस सूत्र में | | फैलाकर आकाश में उड़ता है। और अंडा अगर रुका रह जाए, तो प्रवेश आसान हो जाएगा। समझना कहना शायद ठीक नहीं, जो अंडा पक्षी को सम्हालने के लिए था, उसकी सुविधा और क्योंकि समझ तो हम बहुत बार लेते हैं, फिर भी कोई समझ पैदा | व्यवस्था के लिए था, उसकी सुरक्षा के लिए था, वही–वही उसके नहीं होती। शायद उचित होगा कहना कि हम उस सूत्र को थोड़ा कर | लिए कब्र बन जाएगा। अंडे को टूटना ही चाहिए। लें, तो यह सूत्र समझ में आ सकेगा। 'मन जरूरी है। आदमी बिना मन के पैदा हो, तो वैसा ही होगा कृष्ण ने कहा है, निश्चल ध्यान योग को जो उपलब्ध होता है, | जैसा बिना अंडे के कोई पक्षी पैदा हो, तो मुश्किल में पड़ जाए। वह मेरे में एकीभाव से ठहर जाता है। मन बिलकुल जरूरी है; लेकिन अंडे की तरह ही जरूरी है। एक निश्चल ध्यान योग क्या है, वह मैंने कल आपसे कहा। लेकिन सीमा तक साथी है, एक सीमा के बाद दुश्मन हो जाता है। एक कैसे आप उसे कर सकते हैं, वह मैं आज आपसे कहना चाहूंगा। | जगह तक बचाता है, एक सीमा के बाद हानि पहुंचाने लगता है। क्या है, एक बात है; कैसे किया जा सकता है, बिलकुल दूसरी बात | एक सीमा तक सहारा है, एक सीमा के बाद कारागृह हो जाता है। है। निश्चल ध्यान योग का अर्थ समझ लेना एक बात है; निश्चल और हमारा मन करीब-करीब कारागृह है। अनेक-अनेक जन्मों ध्यान योग की प्रक्रिया में उतर जाना बिलकुल दूसरी बात है। और से हम उस मन को लेकर चल रहे हैं, जो हमें कभी का तोड़ देना प्रक्रिया में उतरे बिना कोई भी जान नहीं पाएगा; समझ कितना ही ले। चाहिए था। लेकिन अंडे के भीतर जो छिपा हुआ पक्षी है, उसे भी इसलिए बहुत बार जिन्हें हम समझदार कहते हैं, उनसे नासमझ तो कुछ पता नहीं आकाश का। और उसे यह भी तो डर समाता आदमी खोजने मश्किल होते हैं। वे सब समझते हैं और जानते कछ होगा कि अंडे को तोड दं तो फिर मेरा क्या होगा। वही तो मेरी भी नहीं। सच तो यह है कि वे इतना समझते हैं कि सोचते हैं, जानने | | सुरक्षा है, वही मेरी आड़ है, उसी से तो मैं बचा हूं; वह मेरा घर है। की अब कोई जरूरत ही न रही। शब्द का उनके पास भंडार हो | स्वाभाविक है कि हम मन को ही अपनी सुरक्षा मानकर जीते हैं। सकता है, अनुभव का उनके पास कण भी नहीं होता। अनुभव का | | इसलिए अगर कोई आपके शरीर को बीमार कह दे, तो आप नाराज संबंध, ध्यान क्या है, इसे समझने से नहीं है; ध्यान कैसे होता है, नहीं होते। कोई अगर कह दे कि आप दुबले दिखाई पड़ते हैं, बीमार इसमें उतर जाने से है। मालूम होते हैं, तबीयत खराब है! तो सहानुभूति मालूम पड़ती है। ध्यान एक अनुभूति है। ध्यान के सैकड़ों प्रकार हैं। और सैकड़ों लगता है, यह आदमी मित्र है। लेकिन कोई आपसे कह दे कि मार्गों से लोग ध्यान को उपलब्ध हो सकते हैं। निश्चल ध्यान योग आपका मन बीमार मालूम पड़ता है, कुछ मन में ज्वर मालूम होता की तरफ पहुंचने के लिए भी सैकड़ों रास्ते हैं। और पृथ्वी पर | | है, मन में कुछ विक्षिप्तता दिखाई पड़ती है, पागलपन मालूम पड़ता अनेक-अनेक रास्तों से चलकर लोग उस क्षण को उपलब्ध हो गए | है। तो फिर यह आदमी मित्र नहीं मालूम पड़ता, यह दुश्मन मालूम हैं, जिसे हम मन का ठहर जाना कहें। एक छोटी-सी प्रक्रिया मैं | | पड़ता है। क्योंकि शरीर को हम अपने से दूर मान पाते हैं, लेकिन आपसे कहूंगा, सरल, जिसे आप कर सकें। मन के साथ तो हम अपने को एक ही मानते हैं। इसलिए जब कोई और आपको निश्चल मन की थोड़ी-सी झलक और छाया भी | कहता है, आपका शरीर बीमार है, तो वह यह नहीं कहता कि आप मिलनी शुरू हो जाए, तो आपकी जिंदगी रूपांतरित होने लगेगी। बीमार हैं। आपका शरीर बीमार है। लेकिन जब कोई कहता है कि एक नए आदमी का जन्म आपके भीतर हो जाएगा। पुराना आदमी आपका मन रुग्ण है, तो आपको तत्काल लगता है कि इसका बिखरने, पिंघलने लगेगा; और एक नई चेतना, एक नया केंद्र, | मतलब हुआ कि मैं पागल हूं, मैं रुग्ण हूं! देखने का एक नया ढंग, जीने की एक नई प्रक्रिया, होने की एक मन के साथ हमारा तादात्म्य. हमारी आइडेंटिटी गहरी है। हमने नई व्यवस्था आपके भीतर पैदा हो जाएगी। जैसे अचानक अंधे की | अपने को मन के साथ एक समझ रखा है। और इस तरह पक्षी अंडे आंख खुल जाए, या जैसे अचानक बहरे को कान मिल जाएं, या | के बाहर होने में असुविधा पाता है, उपाय नहीं रह जाता। अंडे को जैसे अचानक कोई मरा हुआ पुनरुज्जीवित हो जाए; ठीक ध्यान के | ही पक्षी समझ ले कि मेरा होना है, तो कठिनाई हो जाती है। अनुभव से ऐसी ही व्यापक क्रांतिकारी घटना चेतना में घटती है। ___ ध्यान मन के तोड़ने का नाम है। या कहें मन के ठहरने का नाम, मन तो एक अंडे की तरह है। अंडा जब टूटता है, तो पक्षी पंख | या कहें मन के तोड़ने का नाम, या कहें मन के पार हो जाने का
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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