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________________ ६ अचुनाव अतिक्रमण है लेकिन हमने उनको बूढ़ा नहीं बनाया । उससे यह पता नहीं चलता कि वे बूढ़े नहीं हुए। उससे यही पता चलता है कि बुढ़ापे से हम कितने भयभीत हैं, कितने डरे हुए हैं। और अगर राम को भी हम देखें, टूटे हुए दांत, लकड़ी टेकते हुए, तो फिर भगवान मानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुंदर, युवा ! वे सदा ही युवा हैं। उनका युवापन ठहर गया है; वह आगे नहीं बढ़ता। कृष्ण को बूढ़ा देखें । खखारते हुए, खांसते हुए, खाट पर, किसी अस्पताल में भर्ती ! बिलकुल यह हमारे भरोसे के, विश्वास के बाहर हो गया। हमारी सारी श्रद्धा नष्ट हो जाएगी। और हमें लगेगा, यह भी क्या बात हुई ! कम से कम भगवान होकर तो ऐसा नहीं होना था। तो भगवान हमारी कामनाओं से हम निर्मित करते हैं। उनकी मूर्ति हम अपनी वासना से निर्मित करते हैं । उसका तथ्य से कम संबंध है, हमारी भावना से ज्यादा संबंध है। देखते हैं आप, न दाढ़ी उगती राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को । न मूंछ निकलती, न दाढ़ी निकलती। जरा कठिन मामला है। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई पुरुष मुखन्नस होता है। कभी-कभी किसी पुरुष को दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती । क्योंकि उसमें कुछ हार्मोन की कमी होती है; वह पूरा पुरुष नहीं है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। सब अवतार हमने मुखन्नस खोज लिए! जरा कठिन है। थोड़ा सोचने जैसा है! जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। चौबीस तीर्थंकरों में किसी की दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती । यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इतनी खोज कर ली हो। और हमेशा जब भी कोई तीर्थंकर हुआ, तो वह ऐसा आदमी हुआ जिसमें हार्मोन की कमी थी। यह बात नहीं है। दाढ़ी-मूंछ उगी ही है। लेकिन हमारा मन नहीं कहता कि दाढ़ी-मूंछ उगे । क्यों? क्योंकि वह दाढ़ी-मूंछ जो उगे, तो फिर बुढ़ापा आएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो युवावस्था को ठहराना मुश्किल हो जाएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो वे फिर ठीक हम जैसे हो जाएंगे। और हमारा मन करता है कि वे हम जैसे न हों। हम अपने से बहुत परेशान हैं। हम अपने से बहुत पीड़ित हैं। वे हम जैसे न हों। इसलिए हमने अपने अवतारों, अपने तीर्थंकरों, अपने पैगंबरों वे सब बातें जोड़ दी हैं, जो हम चाहते हैं, हममें होतीं, और नहीं हैं। हम सुबह-शाम लगे हैं दाढ़ी छोलने में वह हम चाहते हैं कि न होती। वह हम चाहते हैं कि न होती। और आज नहीं कल विज्ञान व्यवस्था खोज लेगा कि पुरुष दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पा जाए। इतनी उत्सुकता दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पाने की भी बड़ी अजीब है और बड़ी विचारणीय है और बड़ी मनोवैज्ञानिक है। थोड़ी पैथालाजिकल है, थोड़ी रुग्ण भी है। पुरुष के मन में जो सौंदर्य की धारणा है, वह स्त्री की है । उसको स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है। और स्त्री के चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं है। वह सोचता है, सुंदर होने का लक्षण दाढ़ी-मूंछ का न होना है। मगर स्त्रियों से भी पूछो, कि दाढ़ी-मूंछ न हो, तो स्त्री को चेहरा सुंदर सच में लग सकता है ? लगना नहीं चाहिए। और अगर लगता है, तो उसका मतलब पुरुषों ने उनका दिमाग भी भ्रष्ट किया हुआ है। लगना नहीं चाहिए । प्राकृतिक रूप से स्त्री को दाढ़ी-मूंछ वाला चेहरा सुंदर लगना चाहिए, जैसा पुरुष को गैर दाढ़ी-मूंछ का चेहरा सुंदर लगता है। थोड़ा सोचें कि आपकी पत्नी दाढ़ी-मूंछ लगाए हुए खड़ी है ! तो जब आप गैर दाढ़ी-मूंछ के खड़े हैं, तब वही हालत हो रही है। लेकिन चूंकि पुरुष प्रभावी है और स्त्रियों के मन को उसने अपने ही सांचे में ढाल रखा है हजारों साल में... । स्त्रियां कह भी नहीं सकतीं कि तुम यह क्या कर रहे हो ? क्यों स्त्री जैसे हुए जा रहे हो ? स्त्रियां भी मानती हैं कि यह सुंदर है, क्योंकि उनकी अपनी सुंदर की व्याख्या भी हमने नष्ट कर दी है। स्त्री का हमने मंतव्य ही समाप्त कर दिया है। पुरुष की ही धारणा, उसकी भी धारणा है। जिसको पुरुष सुंदर मानता है, वह भी सुंदर मानती है। तो सुंदर की जो हमारी धारणा थी, हमने राम पर, कृष्ण पर, बुद्ध पर थोप दी है। लेकिन वे हमारी कामनाएं हैं; वे तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो, जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी है, यह है। मृत्यु से हम भयभीत हैं। हम बचना चाहते हैं। हम में से अधिक लोग आत्मा को अमर इसीलिए मानते हैं कि | इसके सिवाय बचने का और कोई उपाय नहीं दिखता। उन्हें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि आत्मा है भी। लेकिन फिर भी वे माने चले जाते हैं कि आत्मा अमर है। क्यों? भय है मृत्यु का। शरीर तो जाएगा, यह पक्का है, कितना ही उपाय करो। तो बचने का अब एक ही उपाय है कि आत्मा अमर हो। इसलिए जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, आत्मा में भरोसा करने लगता है। जवान आदमी कहता है, पता नहीं, है या नहीं। हो सकता है, न भी हो । यह आदमी अभी समझकर नहीं बोल रहा है। अभी जवानी का जोश बोल रहा है। थोड़ा हाथ-पैर ढीले पड़ने दें, भरोसा आने 321
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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