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________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 है, हे यादव, हे मित्र, हे सखा! इस विराट को मित्र की तरह को छोड़कर; वह जो बूढ़ा था, वह जो पड़ोस में ही रहता था। और व्यवहार किया है। आज सोचकर भी भय लगता है। आज सोचकर उसका जो व्यवहार था, वह ऐसा था कि बड़ा कठोर था। भी उसे लगता है कि मैंने क्या किया। क्या समझा मैंने उन्हें अब __फिर रवींद्रनाथ ने लिखा है कि लेकिन एक दिन सारी बात बदल तक। और मैंने कैसा व्यवहार किया। काश. मझे पता होता कि क्या गई। जा रहा था समद्र के किनारे, वर्षा हई थी थोडी. और रास्ते के छिपा है उनके भीतर, तो ऐसा व्यवहार मैं कभी न करता। | किनारे डबरों में पानी भर गया था। सांझ उतर गई। चांद आ गया। लेकिन बड़े मजे की बात है कि यह अर्जुन को ही लगता हो, ऐसा | | पूरे चांद की रात थी, डबरों में, गंदे डबरों में सड़क के किनारे, चांद नहीं है। अगर आप पत्नी हैं, या अगर आप पति हैं, या पिता हैं, या | की छवि बनने लगी, बड़ी प्यारी। फिर सागर के किनारे जाकर देखा बेटा हैं, जिस दिन आपको परमात्म-अनुभव होगा, उस दिन आपको चांद को। फिर अचानक एक खयाल आया कि चांद तो चांद ही है, भी लगेगा कि पत्नी के साथ मैंने कल तक कैसा व्यवहार किया। चाहे सागर का स्वच्छ जल हो और चाहे सड़क के किनारे बने गंदे क्योंकि तब आपको पत्नी में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब | | डबरे का गंदा जल हो, चांद के प्रतिबिंब में तो कोई गंदगी नहीं आपको लगेगा, मैंने नौकर के साथ कैसा व्यवहार किया! क्योंकि | | होती। चाहे वह गंदे डबरे में बन रहा हो और चाहे स्वच्छ जल में तब आपको नौकर में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब आपको | | बन रहा हो, प्रतिबिंब तो गंदा नहीं होता गंदे जल के कारण। लगेगा, अब तक जो भी मैंने किया, वह नासमझी थी। क्योंकि इस खयाल के आते ही समाधि लग गई। यह खयाल अनूठा है। जिसको मैं जो समझ रहा था, वह वह है ही नहीं। यह तो प्रतीक है। इसका मतलब हुआ कि सीमाएं सब टूट गईं। और प्रतिबिब कहा अर्जुन का यह कहना, यह सभी अनुभवियों को अनुभव होगा। | | भी बन रहा हो उसका, चाहे राम में, चाहे रावण में, बराबर हो रवींद्रनाथ ने लिखा है कि जब उनकी गीतांजलि प्रकाशित हुई गया। समाधि लग गई, आनंद से हृदय भर गया। नाचता हुआ घर और उन्हें नोबल प्राइज मिली। नोबल प्राइज जब तक न मिली थी, | | की तरफ लौटने लगा। रास्ते पर वह आदमी मिला। आज मुझे डरा तब तक तो कोई फिक्र उनकी करता नहीं था। जब नोबल प्राइज | नहीं पाया, आज उसे देखकर भी मैं आनंदित हुआ। उसे मैंने गले मिली, तो स्वागत-समारंभ शुरू हो गए। सारे कलकत्ते ने स्वागत | | लगा लिया। आज उसने मेरी आंख में आंख झांककर देखा, लेकिन किया। विरोधी भी मित्र बन गए। मुझसे कहा नहीं कि क्या ईश्वर का अनुभव हुआ है। उसने कहा, लेकिन एक बढा उनके पडोस में था. जो नोबल प्राइज से जरा तो अच्छा हो गया। मालम पडता है. हो गया। भी न डरा। और वह बूढ़ा उन्हें बड़ा परेशान किए हुए था, कि जब | रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस दिन के बाद तीन दिन तक ऐसी दशा उनकी कविताएं छपती थीं, तो वह बूढ़ा अक्सर उनको रास्ते में मिल | | बनी रही कि जो मिल जाए, उससे ही गले मिलने का हो मन-मित्र जाता आते-जाते और कहता कि सुन! परमात्मा का अनुभव हुआ | | हो कि शत्रु हो, अपरिचित कि परिचित, नौकर, मित्र-कोई भी है? क्योंकि वे परमात्मा के बाबत कविताएं लिख रहे थे। ऐसा उनसे | | हो। और फिर आदमी चुक गए, तो गाय, घोड़े, उनसे भी गले कोई भी नहीं पूछता था। कविता ठीक है कि नहीं, यह अलग बात | | मिलना होने लगा। फिर वे भी चुक गए, तो वृक्ष, पत्थर, दीवाल। है। लेकिन ऐसा उनसे कोई भी नहीं पूछता था कि परमात्मा का | | और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि दीवाल से मिलकर भी वही अनुभव अनुभव हुआ है! होने लगा, जो अपनी प्रेयसी से मिलकर हो। बूढ़ा ऐसी तेज आंख से देखता था कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि | | लेकिन उस दिन लगा कि अब तक जो मैंने लोगों से व्यवहार उस आदमी से जितना मैं डरता था, किसी से भी नहीं डरता था। | किया है, वह बड़ा बुरा था। जाकर क्षमा मांगने गया उस बूढ़े से कि और हिम्मत भी नहीं पड़ती थी कहने की कि अनुभव हुआ है, मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हें पहचान ही न पाया कि तुम कौन हो। क्योंकि अनुभव हुआ भी नहीं था। और उससे कहने में कोई सार | | आज पहचान पाया हूं, तो सबसे क्षमा मांगने के सिवाय और कोई भी नहीं था। उसकी आंख ही डरा देती थी। उपाय नहीं है। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने बड़े प्रेम के गीत गाए, बड़ी मित्रता | जिस दिन आपको भी थोड़ी-सी झलक मिलेगी, सिवाय क्षमा के, लेकिन मेरे मन में उस बूढ़े के प्रति कोई सदभाव कभी नहीं मांगने के और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। क्योंकि चारों तरफ वही जन्मा। मैं सारे जगत के प्रति प्रेम का गीत गा सकता था उस बूढ़े | | विराट मौजूद है, और हम उसके साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, वह 386
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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