SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान मन को भी छोड़ देना है। जो हो रहा है, होने देना है। धीरे-धीरे शरीर और मन अपने आप गति करने लगेंगे और आप सिर्फ साक्षी रह जाएंगे, अपने ही शरीर, अपने ही मन के । मैं पढ़ रहा था, रूसी अंतरिक्ष यात्री पैकोव जब पहली दफा छत्तीस घंटे जमीन की परिधि में परिक्रमा किया, तो उसने अपने संस्मरण लिखे लौटकर । उसने अपनी डायरी में लिखा है... । क्योंकि जैसे ही जमीन का गुरुत्वाकर्षण समाप्त होता है, हाथ-पैर निर्भर हो जाते हैं, वेटलेस हो जाते हैं। अंतरिक्ष में कोई वजन तो नहीं है। वजन तो आप में भी नहीं है। जमीन की कशिश की वजह से वजन मालूम पड़ता है। दो सौ मील जमीन के पार जाने के बाद वजन समाप्त हो जाता है, आप निर्धार हो जाते हैं। तो पैकोव ने लिखा है कि जब मैं सोने लगा, तो बड़ी मुसीबत मालूम पड़ी। क्योंकि मेरा पूरा शरीर तो बेल्ट से बंधा था, लेकिन मेरे दोनों हाथ ऐसे अधर में लटक जाते थे। तो मैं उनको खींचकर नीचे कर लेता। खींचकर नीचे कर लेता तब तो ठीक, लेकिन जैसे ही झपकी आनी शुरू होती, मेरा खिंचाव बंद हो जाता, हाथ दोनों फिर अधर में लटक जाते! तो उसने लिखा है कि बीच आधी रात में नींद खुली, अपने दोनों हाथ ऐसे लटके हुए देखकर मुझे पहली दफे साक्षी भाव हुआ, कि मेरा शरीर अपना ही शरीर, अपने बस के बाहर ऐसा अधर में लटका हुआ है! कीर्तन की गहराई में जब शरीर को आप बिलकुल छोड़ देते हैं उन्मुक्त, और जो होता है, होने देते हैं, तत्क्षण आपको भीतर लगता है कि मैं शरीर से अलग हूं। अब शरीर अपनी गति से चल रहा है। शरीर अपनी गति कर रहा है और मैं देख रहा हूं। जैसा पैकोव को हुआ होगा, ऐसा कीर्तन में आपको सहज ही हो सकता है। और बड़े मजे की बात है कि आज नहीं कल अंतरिक्ष यात्रा को हम आत्म-साधना के लिए उपयोग में ला सकेंगे। और अतीत में साधकों को जो काम वर्षों तक करके हल होता था, वह अंतरिक्ष में साधक को घंटों में भी हो जा सकता है। क्योंकि जमीन पर रहकर, मैं शरीर नहीं हूं, इस भाव का अनुभव करने में वर्षों लग जाते हैं, क्योंकि जमीन पूरे वक्त खयाल दिलाती है कि तुम शरीर हो । इसलिए हमारा साधक हिमालय के पहाड़ पर दूर जाता था, ऊंचाई पर । जितनी ऊंचाई पर जाता था, जमीन से जितना दूर, उतना निर्भर होना आसान हो जाता था। इसलिए हमने कैलाश खोजा था। लेकिन अब कैलाश छोटी-मोटी जगह है। अब हम अंतरिक्ष में, जमीन को बिलकुल छोड़ सकते हैं। और जब अंतरिक्ष यान में किसी साधक का शरीर हवा में ऐसे उड़ रहा हो, जैसे कि गुब्बारा गैस का भरा हुआ हवा में होता है, तब यह अनुभव करना बिलकुल आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। कीर्तन आपको निर्धार कर जाता है, शरीर को आप छोड़ देते हैं, बच्चे की तरह। कभी-कभी तो नृत्य बड़ा क्रांतिकारी काम कर देता है। सूफियों में दरवेश नृत्य की व्यवस्था है। दरवेश नृत्य वैसा होता है, जैसे बच्चे चक्कर लगाते हैं, एक ही जगह खड़े होकर फिरकनी करते हैं। तो दरवेश नृत्य में एक ही जगह खड़े होकर फिरकनी की तरह चक्कर लगाया जाता है, व्हिरलिंग। जब आप जोर से एक ही | जगह खड़े होकर चक्कर लगाते हैं, सिर घूमने लगता है, चक्कर मालूम होता है । लगता है, गिर जाऊंगा, गिर जाऊंगा। लेकिन अगर आप गिरें न और लगाए चले जाएं, तो थोड़ी ही देर में आपको पता लगेगा कि शरीर चक्कर लगा रहा है और आप खड़े हो गए। छोटे बच्चों को बहुत मजा आता है। मां-बाप रोकते हैं कि म | करो, चक्कर आ जाएगा। मत रोकना। क्योंकि छोटे बच्चों को जो मजा आता है फिरकनी मारने में, वह मजा थोड़े से आत्मा के सुख | का ही है। क्योंकि फिरकनी मारने में उनको लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं। शरीर घूमने लगता है यंत्र की तरह, और बीच में वे खड़े हो जाते हैं। बच्चे निर्दोष हैं, उनको यह जल्दी हो जाता है। नृत्य भी आपको बचपन में ले जाना है। कीर्तन आपको बच्चे की तरह सरल कर देना है। जो हो रहा है, होने देना है। और भीतर सजग शांत देखते रहना है। यह साक्षी भाव बना रहे और अपने को विसर्जित करने की धारणा बनी रहे, तो आपका कीर्तन सफल हो जाता है। अब हम सूत्र को लें। हे परमेश्वर ! सखा ऐसा मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी, हे कृष्ण, हे यादव, | हे सखे, इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है और हे अच्युत, आप हंसी के लिए, विहार, शय्या, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप, आपसे मैं क्षमा कराता हूं। यह बड़ी मधुर बात है। बहुत मीठी, अत्यंत आंतरिक । जिस दिन अर्जुन को दिखाई पड़ा है कृष्ण का विराट होना, उनका परमात्मा होना, उस दिन स्वाभाविक है कि उसका मन अनेक-अनेक पीड़ाओं, अनेक-अनेक शरमों, अपराध भाव से भर जाए। क्योंकि इन्हीं कृष्ण को अनेक बार कंधे पर हाथ रखकर उसने कहा 385
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy