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गीता दर्शन भाग-588
परिक्रमा करनी पड़ती है। एक गहरी गुलामी है।
| समझने में लगेगा, वह अपनी धारा को बदलेगा, भागेगा नहीं। इसलिए जो लोग भी मुक्ति की दिशा में चलते हैं, उनका मन | दूसरे से भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। मेरी ही शक्ति जो दूसरे अगर वितृष्णा से भर जाता हो कामवासना से, तो आश्चर्य नहीं है; । | की तरफ प्रवाहित होती है, वह मेरी तरफ प्रवाहित होने लगे, यह तर्कयुक्त है, स्वाभाविक है। लेकिन शत्रुता से भर जाने से कुछ भी | है सवाल। न होगा। और लड़ने से भी कुछ न होगा।
और जब काम की ऊर्जा अपनी तरफ बहनी शुरू होती है, स्व मजे की बात है! अगर मुझे स्त्री आकर्षित करती है या पुरुष | | की तरफ बहनी शुरू होती है, पर की तरफ नहीं, तब हमें आकर्षित करता है या कोई मुझे आकर्षित करता है, तो लड़ने वाला, | कामवासना का वास्तविक अर्थ और प्रयोजन पता चलता है। तब जो मुझे आकर्षित करता है, उससे भागेगा। लेकिन मैं कहीं भी भाग | हमें पता चलता है कि जिसे हमने जहर समझा था, वह अमृत हो जाऊं, जो मेरे भीतर आकर्षित होता था, वह मेरे साथ ही रहेगा। | जाता है। और तब हमें पता चलता है कि जिसे हमने परतंत्रता __मैं एक स्त्री को छोड़कर भाग सकता हूं, एक पुरुष को छोड़कर | | समझा था, वही हमारी स्वतंत्रता बन जाती है। और तब हमें पता भाग सकता हूं, लेकिन जो भी मेरे भीतर प्रवाहित होता था नीचे की | | चलता है कि जिसे हमने नर्क का द्वार समझा था, वही हमारी मुक्ति
ओर, वह मेरे साथ ही चला जाएगा। वह अ को छोड़ देगा तो ब | | का द्वार भी है। पर आकर्षित होगा, ब को छोड़ देगा तो स पर आकर्षित होगा। और | जब कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो इस सारी दृष्टि को सामने मैं यह भी कर सकता हूं कि सबको छोड़कर निपट जंगल में बैठ | रखकर कह रहे हैं। जाऊं, तो मेरी कल्पना में ही मैं उन सबको पैदा करना शुरू कर | काम की ऊर्जा हमारी शक्ति का नाम है। हम जो.भी हैं, काम दूंगा, जो मेरे आकर्षण के बिंदु बन जाएंगे।
की ऊर्जा के संघट हैं। अगर हमारी ऊर्जा बाहर बहती रहे, तो बिखर स्त्रियों को छोड़कर भाग जाने से कोई स्त्रियों से मुक्त नहीं होता। जाती है, दूर फैलती चली जाती है। अगर यही ऊर्जा भीतर आने स्त्रियों के बीच रहकर कभी मक्त हो भी जाए. भागकर तो मक्त लगे. तो संगठित होने लगती है. इंटीग्रेट होने लगती है. होना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि जिससे हम भागते हैं, वह | क्रिस्टलाइज होने लगती है, केंद्रित होने लगती है। और धीरे-धीरे हमारा पीछा करता है कल्पना में।
| जब सारी बाहर जाने वाली ऊर्जा स्वयं पर ही आकर इकट्ठी हो जाती और ध्यान रहे, कोई भी स्त्री वस्तुतः इतनी सुंदर नहीं है, जितनी है, तो जो क्रिस्टलाइजेशन, जो सेंटरिंग, जो केंद्रीयता हमारे भीतर कल्पना में सुंदर हो जाती है। न कोई पुरुष इतना सुंदर है, जितना | पैदा होती है, वही हमारी आत्मा का अनुभव है। कल्पना में सुंदर हो जाता है। कल्पना कहीं फ्रस्ट्रेट ही नहीं होती; जिस व्यक्ति की कामवासना बाहर भटकती जाती है, उसका कल्पना को कहीं विषाद का क्षण ही नहीं आता! वास्तविक | अनुभव संसार का अनुभव है, आत्मा का अनुभव नहीं। और जिस अस्तित्व में तो हम सब विषाद को उपलब्ध हो जाते हैं। | व्यक्ति की ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती जाती है, संगठित होती चली
जो शरीर कल बहुत सुंदर मालूम पड़ता था, दो दिन बाद | जाती है, अंततः एक ऐसा बिंदु निर्मित हो जाता है वज्र की भांति, साधारण मालूम पड़ने लगेगा। चार दिन बाद उससे ही घबड़ाहट जो बिखर नहीं सकता। उस अनुभव के साथ ही हम पहली दफा होने लगेगी। पंद्रह दिन के बाद उससे भागने का मन भी होने | आत्मा के जगत में प्रवेश करते हैं या ब्रह्म के जगत में प्रवेश करते लगेगा। लेकिन कल्पना में ऐसा क्षण कभी नहीं आता। कल्पना | हैं। लेकिन वह भी सृजन है, अपना ही सृजन। वह भी जन्म है, बड़ी सुगंधित है। कल्पना के शरीरों से न पसीना बहता है। न अपना ही जन्म। कल्पना के शरीरों से दुर्गंध आती है। न कल्पना के शरीर झगड़ते बुद्ध के पास जब कोई भिक्षु आता था, तो वे उससे पूछते थे, हैं, लड़ते हैं। कल्पना के शरीर तो आपकी ही कल्पनाएं हैं, आपको | | तेरी उम्र कितनी है? एक भिक्षु आया बुद्ध के पास और बुद्ध ने कभी भी दुख नहीं देते। लेकिन वास्तविक शरीर तो दुख देंगे। | उससे पूछा, तेरी उम्र कितनी है ? उसने कहा, केवल चार दिन! वास्तविक व्यक्ति तो दुख देंगे। वास्तविक व्यक्तियों के बीच तो | ___ उम्र उसकी कोई सत्तर वर्ष मालूम होती थी। बुद्ध थोड़े चौंके, कलह और संघर्ष होगा।
| और लोग भी चौंके। बुद्ध ने दुबारा पूछा कि कहीं कुछ भूल-चूक इसलिए जो लड़ने में लग जाएगा, वह भागेगा। लेकिन जो सुनने-समझने में हो गई है, तेरी उम्र कितनी है ? उस आदमी ने कहा
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