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________________ परमात्मा का भयावह रूप कुछ बाकी न रहा। तो वह जो जानने की दौड़ थी, समाप्त हो गई। लोग तप रहे हैं, लोग भस्मीभूत हो जाएंगे। ऐसा अग्निरूप अर्जुन वह जो अज्ञान की पीड़ा थी, तिरोहित हो गई। वह जो जिज्ञासा का के सामने प्रकट होना शुरू हुआ। उपद्रव था, विलीन हो गया। जीवन जोड़ है विपरीत द्वंद्वों का, डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक जब तक जानने को कुछ शेष है, तब तक मन में अशांति रहेगी। | है। यहां जन्म है, तो दूसरे छोर पर मृत्यु है। यहां प्रेम है, तो दूसरे जब तक जानने को कछ भी शेष है. तब तक तनाव रहेगा। जब तक | छोर पर घृणा है। यहां सुख है, तो दूसरे छोर पर दुख है। यहां जानने को कुछ भी शेष है, चिंता पकड़े रहेगी कि कैसे जान लूं। सफलता है शिखर, तो वहां खाई है असफलता की। जोड़ है। और तो हम जानने योग्य उसे कहते हैं, जिसे जानकर फिर और कुछ | द्वंद्व के आधार पर ही सारे जीवन की गति है। जानने को शेष नहीं रह जाता। जिज्ञासा शून्य हो जाती है। तनाव __ हम सब की आकांक्षा होती है, इसमें जो प्रीतिकर है, वह बच रहे; विलीन हो जाता है। सब जान लिया जैसे। एक को जान लिया, | जो अप्रीतिकर है, वह समाप्त हो जाए। हम चाहते हैं कि सुख बच सबको जान लिया जैसे। रहे और दुख नहीं। और मजे की बात यह है कि जो ऐसा चाहता है, जानने योग्य, पाने योग्य, कामना करने योग्य, इन सबका | वह इसी चाह के कारण दुख में गिरता है। क्योंकि इस दो में से एक भारतीय परंपरा में जो गहन अर्थ है, वह यह एक ही है। पाने योग्य | को बचाया नहीं जा सकता। ये दोनों जीवन के अनिवार्य हिस्से हैं। वह है, जिसको पाने के बाद फिर पाने को कुछ बचे न। कामना | __ जैसे कोई चाहे कि खाइयां तो मिट जाएं और शिखर बचें, तो करने योग्य वह है, जिसके साथ ही सब कामनाएं शांत हो जाएं। वह पागल है। खाई और शिखर साथ-साथ हैं। एक ही तरंग है। पहुंचने योग्य वह जगह है, जिसके बाद पहुंचने को कोई जगह न | जब शिखर बनता है, तो खाई बनती है। और खाई मिटती है, तो बचे। उसको हम कहते हैं, अल्टीमेट, परम। वह है परम बिंदु | शिखर मिट जाता है। कोई चाहे कि जवानी तो बचे और बुढ़ापा मिट अभीप्सा का। जाए। हम सभी चाहते हैं। लेकिन जवानी शिखर है, तो बुढ़ापा खाई अर्जुन कहता है, अनुभव कर रहा हूं, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि | है। जवान होने के साथ ही आप बूढ़े होने शुरू हो जाते हैं। जवानी आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं, परम ब्रह्म परमात्मा हैं। आप | बुढ़ापे की शुरुआत है। जिस दिन जवान हुए, उस दिन जान लेना, ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं, अब बढ़ापा ज्यादा दूर नहीं है, अब करीब है। आप ही अविनाशी सनातन परुष हैं. ऐसा मेरा मत है। हे परमेश्वर। हम चाहते हैं. सौंदर्य तो बचे. करूपता विलीन हो जाए। लेकिन मैं आपको आदि, अंत और मध्य से रहित तथा अनंत सामर्थ्य से | हमें पता ही नहीं कि अगर कुरूपता विलीन हो जाए, तो सौंदर्य युक्त और अनंत हाथों वाला तथा चंद्र, सूर्य रूप नेत्रों वाला और बचेगा कैसे! सौंदर्य है ही अनुभव कुरूपता के विपरीत; उसी की प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाला तथा अपने तेज से इस जगत को पृष्ठभूमि में होता है। तपायमान करता हुआ देखता हूं। जब आकाश में काले बादल घिरे होते हैं, तो बिजली चमकती अब दूसरा रूप शुरू होता है। एक रूप था सुंदर, मोहक, | | दिखाई पड़ती है। हम चाहते हैं, बिजली तो खूब चमके, काले मनोहर, मन को भाए, लुभाए, आकर्षित करे। लेकिन यह एक | | बादल बिलकुल न हों। वह काले बादल में ही चमकती है। और पहलू था। अब दूसरा रूप भी होगा। जो जीवन को तपाए, भयंकर | काले बादल में चमकती है, तो ही दिखाई पड़ती है। यह जीवन की अग्निमुखों वाला, मृत्यु जैसा विकराल, विनाश करे। सारी चमक मृत्यु की ही पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ती है। हम चाहते अर्जुन कहता है कि देख रहा हूं कि आपके अनंत मुख हैं, | हैं, मृत्यु विदा हो जाए। मृत्यु हो ही न दुनिया में, बस जीवन ही प्रज्वलित अग्निरूप, आपके हर मुख से आग जल रही है। जीवन हो। आभा नहीं, प्रकाश नहीं, आग। पहले ऐश्वर्य की आभा देखी __हमें खयाल ही नहीं है कि हम क्या कह रहे हैं! हम असंभव की उसने, फिर सूर्यों का प्रकाश देखा उसने, अब अग्नि, अब आग्नेय | | मांग कर रहे हैं। और असंभव की जो मांग करता है, वह दुख में अनुभव है। | पड़ता चला जाता है। यह होने वाला नहीं। समझदार वह है, जो मुखों से अग्नि की लपटें निकल रही हैं और आपके इस तेज से | | संभव को स्वीकार कर लेता है और असंभव को विदा कर देता है इस जगत को तपायमान करता हुआ देखता हूं। लोग जल जाएंगे, | अपनी कामना से। 303
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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