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गीता दर्शन भाग-5
भीतर वैसी बात नहीं है। हमारा दुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो। हमारा सुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो । लेकिन हम दूसरों के चेहरे ही देख सकते हैं, उनकी आत्मा को नहीं देख पाते। हम अंदाज लगा सकते हैं कि ऐसा ही हमें होता है। किसी आदमी की आंख से आंसू गिर रहे हों, तो हम अनुमान लगाते हैं, इनफरेंस करते हैं कि जब दुख होता है, तो मेरे आंसू बहते हैं । उसको भी दुख हो रहा होगा। यह जरूरी नहीं है। यह आवश्यक नहीं है। यह अनुमान है।
एक आदमी की समझ भी दूसरे के प्राणों में प्रवेश नहीं कर पाती — दूसरे आदमी की, जो कि ठीक हमारे जैसा ही है। तो अगर आदमी की समझ पशुओं में प्रवेश न कर पाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
इसलिए दुनिया के बहुत-से धर्मों ने पशुओं में आत्मा ही नहीं मानी, इसलिए पशुओं को काटने में कोई अड़चन नहीं पाई। समझा कि पशु शायद आदमी के लिए ही बने हैं कि उनको काटो; वे आदमी का भोजन हैं! उसका कुल कारण इतना था कि पशुओं के पास आत्मा के होने का जो ढंग है, उससे हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ पाता। हमारे और पशुओं के बीच कोई संवाद नहीं हो पाता । हमारी और उनकी भाषा कहीं मिल नहीं पाती। उनके संकेत हमारी समझ में नहीं आते। और इसलिए स्वभावतः, पशु हमारे लिए यंत्रवत मालूम होता है।
फिर पौधे तो और भी दूर हो जाते हैं। इसलिए पौधों को तो कोई कठिनाई हम सोच ही नहीं सकते कि उनको पीड़ा होती होगी, कि दुख होता होगा, कि सुख होता होगा, कि वे भी कभी आनंदित होकर समाधिस्थ होते होंगे, कि कभी वे भी नाचते होंगे किसी खुशी में, और कभी उनके प्राणों से भी आंसू बहते होंगे। उनके आंसू का ढंग हमें पता नहीं, उनकी मुस्कुराहट हमें पता नहीं, उनकी भाषा का कोई संकेत भी हमारे पास नहीं है।
लेकिन इस मुल्क में हमने और-और रास्तों से भी मनुष्य इतर अस्तित्व में प्रवेश करने की कोशिश की है। महावीर इतने अभिभूत हो गए थे समस्त जीवन, जहां-जहां भी अस्तित्व है, वहां-वहां जीवन है, इससे कि उन्होंने अपने साधुओं को कहा है कि गीली जमीन पर भी मत चलना। क्योंकि गीली जमीन पर अगर घास का अंकुर भी हो गया हो, तो उस अंकुर पर भी पैर पड़ जाना हिंसा है। उन्होंने कहा है कि कच्चे फल को तोड़कर मत खाना । क्योंकि कच्चा फल जब तोड़ा जाता है, तो वृक्ष के प्राणों में वैसी ही पीड़ा
होती है, जैसे कोई आपका हाथ तोड़ ले। जब वृक्ष से फल पक जाए और गिर जाए, तभी ।
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महावीर की अहिंसा शायद आने वाले पचास वर्षों में पुनर्स्थापित हो सके । क्योंकि विज्ञान जो खोज कर रहा है पौधों के भीतर संवेदना की, वह महावीर को सही सिद्ध कर जाएगी कि वे ठीक कहते थे; कि वहां भी प्राण इतना ही है, जितना हमारे भीतर। वहां भी संवेदना इतनी ही है, जितनी हमारे भीतर। वहां भी आत्मा इतनी ही है, जितनी हमारे भीतर।
कृष्ण कहते हैं, वृक्षों में मैं पीपल हूं।
आपको तो अंदाज नहीं होगा, लेकिन जो लोग - बहुत कम लोग जमीन पर वृक्षों के साथ मेहनत किए हैं- जिन्होंने पता लगाने की कोशिश की कि वृक्षों में सबसे ज्यादा प्रतिभा कहां है। तो उन सबके नतीजे पीपल जाति के वृक्षों के करीब आते हैं। पीपल बहुत प्रतिभावान, बहुत प्रज्ञावान वृक्ष है। वृक्षों में प्रज्ञा सर्वाधिक उसमें प्रकट हुई है।
इसलिए पीपल की पूजा ऐसे ही आकस्मिक शुरू नहीं हो गई थी। वह पीपल के भीतर जो प्रज्ञा की संभावना है, उसके कारण शुरू हो गई थी।
कई बार जब विज्ञान खो जाते हैं, तो हमारे हाथ में अंधविश्वास रह जाते हैं। आज भी हम पीपल के नीचे अपने परमात्मा को स्थापित करते हैं, मूर्ति को निर्मित करते हैं। आज भी हम पीपल की पूजा करते हैं, आज भी पीपल को नमस्कार कर लेते हैं, उसको सिर झुका लेते हैं। लेकिन शायद हमें पता कुछ भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं! और अगर पता न हो, तो हमारे नमस्कार में कोई भी अर्थ नहीं रह जाता।
पीपल को नमस्कार का एक ही अर्थ है कि प्रज्ञा कहीं भी हो, नमस्कार के योग्य है। पीपल में हो, तो भी।
लेकिन हम तो अगर मनुष्य भी हमारे पड़ोस में प्रज्ञावान हो, तो | उसको भी नमस्कार करने में पीड़ा अनुभव करेंगे। और पीपल को हम नमस्कार कर लेंगे ! और अगर पड़ोसी में भी प्रज्ञा हो, उसमें भी ज्ञान का जन्म हुआ हो, तो भी हमारा सिर उसके सामने नहीं झुकेगा। तो साफ है कि हमें पता नहीं कि पीपल को नमस्कार करते वक्त हम क्या कर रहे हैं। पीपल को नमस्कार करते वक्त कौन-सा विज्ञान काम कर रहा है, कौन-सा स्मरण काम कर रहा है, उसका हमें कोई भी बोध नहीं है।
अगर वृक्षों में भी प्रज्ञा स्थापित होती हो, अगर उनमें भी कहीं
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