________________
गीता दर्शन भाग-500
देता हूं।
इसका इतना ही मतलब हुआ कि अहंकार से बड़ा पाप और कोई इंस्ट्रमेंटल है। देखने वाला भीतर है। भी नहीं है। और निरअहंकारिता से बड़ी कोई साधुता नहीं है। दिव्य-चक्षु का अर्थ होता है, सिर्फ देखने वाला ही हो, बिना
अर्जुन झुक गया। उसने कहा, अब जो मर्जी; अब मैं राजी हूं। | किसी माध्यम के। क्यों? क्योंकि माध्यम सीमा बनाता है। जिससे अब न मेरा कोई संदेह है, न कोई सवाल है। अब तुम जो करना | | आप देखते हैं, उससे आपकी सीमा बंध जाती है। जब कोई भी चाहो। तो कृष्ण ने कहा, तुझे मैं अलौकिक चक्षु देता हूं, दिव्य-चक्षु | | देखने का माध्यम न हो और देखने की शुद्ध क्षमता भीतर जाग्रत हो
| जाए, तो जो दिखाई पड़ता है, वह असीम है। दिव्य-चक्षु के संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है। थोड़ा ऐसा ही समझें कि आप एक छोटे-से छेद से दीवाल से अपने कठिन है, क्योंकि हमें उसका कोई अनुभव नहीं है। तो किस भाषा | | घर के भीतर छिपे हुए बाहर के आकाश को देखते हैं। फिर आप में, कैसे उसे पकड़ें?
दीवाल को तोड़कर और बाहर खुले आकाश के नीचे आकर खड़े अभी हम देखते हैं; अभी हम आंख से देखते हैं। रात आप | हो जाते हैं। सपना भी देखते हैं। कभी आपने खयाल किया कि वह आप बिना अभी तक हमने अपने भीतर छिपकर, शरीर के भीतर छिपकर आंख के देखते हैं। आंख तो बंद होती है। आप सपना देख रहे हैं, जगत को आंखों के छेद से देखा है। इन आंखों का विस्मरण करके बिना आंख के देख रहे हैं। अगर आपकी आंख फूट भी जाए, आप | सिर्फ भीतर देखने वाला ही सजग हो जाए, सिर्फ देखने वाला ही अंधे हो जाएं, तो भी आप सपना देख सकेंगे।
रह जाए-जिसको हम द्रष्टा कहते हैं, साक्षी कहते हैं सिर्फ जन्मांध नहीं देख सकेगा। और जन्मांध अगर देखेगा भी सपना, चैतन्य भीतर रह जाए और कोई माध्यम न हो देखने का, तो खुला तो उसमें आंख का हिस्सा नहीं होगा, कान का हिस्सा होगा, हाथ आकाश प्रकट हो जाता है। का हिस्सा होगा। सुनेगा सपने में, देख नहीं सकेगा। लेकिन अगर वह देखने की क्षमता, शुद्ध, बिना माध्यम के, उसका नाम ही आप अंधे हो जाएं, तो आप आंख के बिना भी सपना देख सकेंगे। दिव्य-चक्षु है। उसे दिव्य इसलिए कह रहे हैं कि फिर हम असीम सपना बिना आंख के देखते हैं; कौन देखता है!
को देख सकते हैं। फिर सीमा से कोई संबंध न रहा। ___ शायद आपने कभी सोचा ही नहीं कि आंख के बिना भी देखना ध्यान रहे, वस्तुओं में सीमा नहीं है, हमारी इंद्रियों के कारण हो जाता है! अंधेरा होता है, आंख बंद होती है, आप भीतर सपना | दिखाई पड़ती है। इस जगत में कुछ भी सीमित नहीं है, सब असीम देखते हैं, सपना रोशन होता है। जिनके पास थोड़ी कलात्मक रुचि है। लेकिन हमारे पास देखने का जो उपाय है, वह सभी पर सीमा है, वे रंगीन सपना भी देखते हैं। जो थोड़े कलाहीन हैं, वे | बिठा देता है। वह ऐसा ही है जैसे कि एक आदमी रंगीन चश्मा ब्लैक-व्हाइट देखते हैं। जो थोड़े पोएटिक हैं, कवि है जिनके पास | | लगाकर देखना शुरू करता है। सब चीजें रंगीन हो जाती हैं। और मन में या चित्रकार जिनके भीतर छिपा है, वे रंगीन भी देखते हैं। | अगर हम जन्म के साथ ही रंगीन चश्मे को लेकर पैदा हुए हों, तो रंग भी दिखाई पड़ते हैं बिना आंख के। कान भी बंद हों, तो सपने | हमें खयाल भी नहीं आ सकता कि चीजें रंगीन नहीं, सब हमारे में आवाज सुनाई पड़ती है। और हाथ तो होते नहीं भीतर। फिर भी चश्मे से दिए गए रंग हैं। सपने में स्पर्श होता है, गले मिलना हो जाता है।
हम जो भी अपने चारों तरफ देख रहे हैं, वह वही नहीं है, जो तो एक बात तय है कि जो आपके भीतर देखने वाला है, उसका | है। हम वही देख रहे हैं, जो हम देख सकते हैं। हम वही सुन रहे आंख से कोई बंधन नहीं है, आंख से कोई देखने की अनिवार्यता | हैं, जो हम सुन सकते हैं। हम वही अनुभव कर रहे हैं, जो हम नहीं है। आंख जरूरी नहीं है देखने के लिए। लेकिन बाहर देखने अनुभव कर सकते हैं। चुनाव कर रहे हैं हम, सिलेक्टिव है हमारा के लिए जरूरी है। भीतर देखने के लिए जरूरी नहीं है। भीतर तो | सारा अनुभव, क्योंकि हमारी सारी इंद्रियां चुनाव कर रही हैं। आंख बंद करके भी देखा जा सकता है।
अभी वैज्ञानिक इस पर बहुत अध्ययन करते हैं, तो वे कहते हैं तो एक तो खयाल ले लें, जो आंखें हमारी हैं, वे हमारे दर्शन की | | कि सौ में से हम केवल दो प्रतिशत देख रहे हैं। जो भी हमारे चारों क्षमता नहीं हैं, केवल दर्शन को बाहर ले जाने वाले द्वार, माध्यम तरफ घटित होता है, उसमें अट्ठानबे प्रतिशत हमें पता ही नहीं हैं। हमारी देखने की क्षमता को बाहर तक पहुंचाने की व्यवस्था है, चलता। उसे हम चुनते ही नहीं हैं; वह हमसे छूट ही जाता है।