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६ दिव्य चक्षु की पूर्व - भूमिका
इसे हम थोड़ा ऐसा समझें कि आप एक रास्ते से भागे चले जा रहे हैं; आपके घर में आग लगी है। उसी रास्ते से आप रोज गुजरते हैं, आज भी गुजर रहे हैं, लेकिन आज आप रास्ते में वही बातें नहीं देखेंगे, जो आप रोज देखते थे। एक सुंदर स्त्री पास से निकलेगी, आपको पता ही नहीं चलेगा। ऐसा बहुत बार आपने चाहा था कि ऐसी घड़ी आ जाए चित्त की कि सुंदर स्त्री पास से निकले और पता न चले। लेकिन वह घड़ी कभी नहीं आई। आज मकान में आग लग गई है, तो घड़ी आई है। सुंदर स्त्री पास से निकलती है, आपकी स्थिति वही है, जो बुद्ध की रही होगी। अभी आपको बिलकुल दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन बुद्ध बिना मकान में आग लगे; आपको मकान में आग लगे तब ।
क्या हो गया? आंखें वही हैं, कान वही हैं। रास्ते पर कोई गीत चल रहा है, आज सुनाई नहीं पड़ता । कोई नमस्कार करता है, कितनी दफे चाहा था कि यह आदमी नमस्कार करे और इस नासमझ को, कमबख्त को, आज नमस्कार करने का मौका मिला ! वह आज दिखाई नहीं पड़ता। आज मकान में आग लगी है। आपकी सारी चेतना एक तरफ दौड़ गई है। आपकी सभी इंद्रियां निस्तेज हो गई हैं । कोई भी इंद्रिय से आपकी चेतना का कोआपरेशन, सहयोग नहीं रहा, टूट गया।
आंख से देखने के लिए आंख के पीछे आपकी मौजूदगी जरूरी है। आज आपकी मौजूदगी यहां नहीं है। मकान में आग लगी है; आप वहां मौजूद हैं। आंख से अब आप भाग रहे हैं। आंख से सिर्फ आप इतना ही काम ले रहे हैं कि किस तरह उस मकान के पास पहुंच जाएं, जहां आपकी चेतना पहले ही पहुंच गई है। इस शरीर को कैसे उस मकान के पास तक पहुंचा दें, जहां आपका मन पहले ही पहुंच गया है। बस इतना इस आंख से काम लेना है, बाकी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है।
इसे हम ऐसा समझें कि रास्ते पर अट्ठानबे - निन्यानबे प्रतिशत चीजों के लिए आप अंधे हो गए हैं। सिर्फ एक प्रतिशत आंख का काम रह गया है।
संसार से जब कोई सौ प्रतिशत अंधा हो जाता है, तो दिव्य-चक्षु उत्पन्न होता है। क्योंकि वह जो एक प्रतिशत भी है, वह भी काफी है। जोड़ तो बना ही हुआ है। और वह एक प्रतिशत के पीछे फिर वापस निन्यानबे लौट आएगा। जब कोई संसार के प्रति सौ प्रतिशत अनुपस्थित हो जाता है, इस अनुपस्थिति का पारिभाषिक नाम वैराग्य है।
वैराग्य का मतलब यह नहीं कि घर को छोड़कर कोई भाग जाए। छोड़ने में भी राग है । छोड़ने में भी घर की पकड़ है। क्योंकि जो पकड़े है, वही छोड़ता है । और छोड़ने की कोशिश करनी है, तो | उसका मतलब है कि पकड़ भारी है। और छोड़कर जो भाग जाता है, उसके भागने में उतनी ही गति होती है, जितनी पकड़ मजबूत होती है। क्योंकि वह डरता है कि कहीं खींच न लिया जाऊं । जोर से भाग जाऊं । सब बीच के सेतु तोड़ दूं कि लौटने का कोई रास्ता न रहे। सब रास्ते गिरा दूं कि फिर वापस न लौट सकूं।
लेकिन यह सब भय है; वैराग्य नहीं है। वैराग्य का मतलब तो इतना ही है कि संसार जहां है, वहां है; न मैं उसे छोड़ता हूं, न पकड़ता हूं। सिर्फ मैं उसके प्रति, मेरी जो चेतना सब इंद्रियों से दौड़ती थी उसके प्रति, उसे वापस लौटा रहा हूं। उसका प्रतिक्रमण, उसकी वापसी, उसका लौट आना, बस इतना ही वैराग्य का अर्थ है। अगर आंख विरागी हो जाए, तो दिव्य चक्षु खुल जाता है।
समर्पण कोई करता ही तब है, जब संसार में रस न रह जाए। इसे थोड़ा समझ लें।
संसार में थोड़ा भी रस हो, तो हम समर्पण नहीं कर सकते। थोड़ी भी वासना हो, तो हम कहेंगे कि... वासना का मतलब ही यह होता | है कि मैं चाहता हूं, ऐसा हो । समर्पण का मतलब है कि अब मैं कहता हूं, जैसा परमात्मा चाहे । अगर मेरे भीतर जरा-सी भी वासना है, तो मैं कहूंगा कि सब कर सकता हूं, बस परमात्मा इतना मेरे लिए कर देना। बाकी सब समर्पण है। बाकी यह मकान मुझे मिल जाए, इतनी शर्त!
सुना है मैंने, फकीर जुन्नैद एक दिन प्रार्थना कर रहा है। और परमात्मा से वह कह रहा है कि वर्षों हो गए तेरी पुकार, तेरी प्रार्थना, तेरे गीत गाते । सब तुझ पर छोड़ दिया। मेरे लिए तेरे सिवाय अब कुछ भी नहीं है। एक बात पूछनी है। यह तो मेरी भावना हुई कि मेरे | लिए तेरे सिवाय कुछ भी नहीं है। तुझसे भी मैं पूछना चाहता हूं कि मेरी तरफ तेरी क्या नजर है? मेरी तरफ तेरी क्या नजर है? यह तो | मेरा खयाल है कि मेरे लिए तेरे सिवाय कोई भी नहीं है। तेरी क्या | नजर है मेरी तरफ, इसका भी तो पता चले!
तो कहते हैं, आवाज जुनैद को सुनाई पड़ी, इसी वासना के कारण तू मुझसे दूर है। इतनी-सी वासना भी; तेरा इतना भी आग्रह कि यह तो पता चले कि आपका क्या खयाल है मेरे प्रति ? अभी तू | अपने को पकड़े ही हुए है। तूने अपने को छोड़ा नहीं है। तूने पूरा नहीं छोड़ा। अभी आखिर में तू मौजूद है और जानना चाहता है कि
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