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8 पूरब और पश्चिमः नियति और पुरुषार्थ 8
का एक पात्र समझ रहा हो, तो चोरी भी नहीं छूती और हत्या भी. हे विष्णु! आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा नहीं छूती।
| परिपूर्ण करके तपायमान कर रहा है। मगर बड़ा कठिन है। बड़ा कठिन है अपने को निमित्त मात्र मान । सब तप रहे हैं, जल रहे हैं, भस्म हुए जा रहे हैं। लेना, कि जो हो रहा है, होने देना। हम कुछ न करेंगे। अपनी बुद्धि । हे भगवन् ! कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले को बीच में न डालेंगे। अपना निर्णय न लेंगे। बहे चले जाएंगे इस | कौन हैं? प्रवाह में। ऐसा जो प्रयोजनहीन होकर जीता है, बच्चे की भांति, | | मानने का मन नहीं होता उसका कि यह आप जो रूप दिखला वही है संत। वह क्या कर रहा है, इस पर निर्भर नहीं है। उसके करने रहे हैं, यह सच में आपका ही रूप है। सोचता है, कोई भ्रम पैदा में जो दृष्टि है, वह घूमने वाले की है, पहुंचने वाले की नहीं। मौज | कर रहे होंगे। सोचता है, कोई प्रतीक! सोचता है, मुझे कुछ धोखा ले रहा है। जो हो रहा है, उसमें ही मौज ले रहा है।
| दे रहे होंगे, डरवा रहे होंगे। सोचता है, मेरी परीक्षा ले रहे होंगे। यह अब हम सूत्र को लें।
मानने का मन नहीं करता है कि यह आप ही हैं। तो वह कहता है, अर्जुन कह रहा है, अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट यह उग्र रूप वाला कौन है? यह आप नहीं मालूम पड़ते! होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते | । हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार होवे, आप प्रसन्न होइए। हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में | | वह घबड़ा भी रहा है। बेचैन हो रहा है। और कह रहा है, आप अति वेग से युक्त हुए प्रवेश कर रहे हैं।
प्रसन्न होइए। जैसे दीया जल रहा हो और पतंगा चक्कर लगाता है दीए के, आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं, क्योंकि और पास आता चला जाता है। उसके पंख भी जलने लगते हैं, तो आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता। भी हटता नहीं, और पास आता चला जाता है। लपट उसे छूने | - आप अपनी प्रवृत्तियां सिकोड़ लें। कि आप लोगों की मृत्यु बनते लगती है, तो भी पास आता चला जाता है। अंत में वह लपट में हैं, मुझे प्रयोजन नहीं। कि आप लोगों को लील जाते हैं, मुझे छलांग लगाकर जल जाता है। और ऐसा भी नहीं कि एक पतंगे को मतलब नहीं। कि आप लोगों को बनाते हैं, मुझे मतलब नहीं। जलता देखकर दूसरे पतंगे कुछ समझ लें। वे भी चक्कर लगाते हैं, | | आपकी प्रवृत्ति को हटा लें। आप क्या करते हैं, इससे मुझे प्रयोजन
और निकट आते जाते हैं प्रकाश के। जहां भी प्रकाश हो, पतंगे | | नहीं। आप क्या हैं, केंद्र में, इसेंस में, सार में, तत्व में, वही मैं प्रकाश को खोजते हैं।
जानना चाहता हूं। अर्जुन कह रहा है, मैं ऐसे ही देख रहा हूं इन सारे लोगों को ___ हम सब भी परमात्मा को जानना चाहते हैं, और उसकी प्रवृत्ति आपके इस मृत्यु रूपी मुंह में जाते हुए। वे सब भाग रहे हैं अति | से बचना चाहते हैं। यह सारा संसार उसकी प्रवृत्ति है। यह सारा वेग से और एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं कि कौन पहले पहुंच | संसार उसका खेल है। हम इससे बचना चाहते हैं और उसे जानना जाए। बड़ा वेग है। और जा कहां रहे हैं! आपके मुंह में जा रहे हैं, चाहते हैं। वही अर्जुन कह रहा है। अर्जुन की आकांक्षा हमारी जहां मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह क्या हो रहा है! ये आकांक्षा है। सब महाशूरवीर, महायोद्धा, बुद्धिमान, पंडित, ज्ञानी, ये सब मृत्यु हम भी कहते हैं, संसार से छुड़ाओ प्रभु, अपने पास बुला लो। की तरफ जा रहे हैं। और इतनी साज-सजावट से जा रहे हैं कि ऐसा | | जैसे कि संसार में वह पास नहीं है! हम कहते हैं, हटाओ इस नहीं लगता कि इनको पता हो कि ये मृत्यु की तरफ जा रहे हैं। इतनी | | भवसागर से, इस बंधन से और अपने गले लगा लो। जैसे इस बंधन शान से जा रहे हैं। शोभायात्रा बना रखी है इन्होंने अपनी गति को। | में उसी ने गले नहीं लगाया है! हम कहते हैं, कब छूटेगी यह पत्नी?
और जा रहे हैं, देखता हूं, आपके मुंह में, जहां मृत्यु घटित होगी। | कब छूटेगा यह पति? यह छुटकारा कब होगा? हे प्रभु! पास __ और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते बुलाओ। जैसे कि इस पति में और पत्नी में वही मौजूद नहीं है! हुए सब ओर से चाट रहे हैं।
बुद्ध वापस आए हैं, जब वे बुद्ध हो गए हैं। और उनकी पत्नी और आप हैं एक कि आपकी अग्नि लपटें सब तरफ से छू रही | | ने एक सवाल पूछा है। पता नहीं, पूछा या नहीं। रवींद्रनाथ ने एक हैं लोकों को और उनको लीले चली जा रही हैं।
गीत लिखा है, जिसमें पूछा है। रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है।
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