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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ और रवींद्रनाथ बड़े आलोचक थे बुद्ध के, गहरे आलोचक थे। पर | | का रूप देता हूं, तब वह आप तक पहुंचता है। सवाल बड़ा कीमती है। न भी पूछा हो, तो बुद्ध की पत्नी को पूछना | अगर आप मुझसे कहें कि ऐसा कुछ करिए कि मैं आपका मौन चाहिए था। | सुन पाऊं, तो बड़ी कठिन होगी बात। क्योंकि उसके लिए फिर बुद्ध वापस लौट आए हैं। यशोधरा पूछती है कि एक ही बात | | आपके कान काम नहीं दे सकेंगे; वे सिर्फ शब्द सुनने को बने हैं। मुझे पूछनी है। जो तुम्हें वहां जंगल में जाकर, मुझे छोड़कर मिला, | और उसके लिए आपकी बुद्धि भी काम नहीं दे सकेगी, क्योंकि वह क्या तुम हाथ रखकर छाती पर कह सकते हो, वह यहीं नहीं मिल | भी केवल शब्द पकड़ने को बनी है। फिर तो आपको भी शून्य में सकता था मेरे पास? ही खड़ा होना पड़े, तो ही फिर मौन से सुना जा सकता है। बुद्ध निरुत्तर खड़े रह गए हैं। पता नहीं, वे खड़े रहे कि नहीं। __एक अदभुत साधक कुछ समय पहले हुआ। अनिर्वाण उस रवींद्रनाथ ने उनको निरुत्तर खड़े रखा है। और मैं भी मानता हूं कि साधक का नाम था। बहुत कम लोग जानते हैं। क्योंकि कभी कोई उत्तर है नहीं। बुद्ध को चुप खड़े रह जाना ही पड़ा होगा। क्योंकि बहुत लोगों को पास नहीं आने दिया। एक फ्रेंच महिला अनिर्वाण झूठ वे बोल नहीं सकते। और सच यही है कि जो उन्होंने जंगल में के पास कोई पांच साल तक रही। बस, वह अकेली एक किताब पाया है, वह यशोधरा के पास भी पाया जा सकता था। क्योंकि वह | उसने लिखी है। वही जगत को जानकारी है अनिर्वाण के संबंध में। वहां भी मौजूद है। पांच साल अनिर्वाण के पास चुपचाप बैठी रही। वे कुछ कहेंगे नहीं, संसार से हटा ले प्रभु हमें। क्यों? वही संसार बना रहा है। आप या कुछ कहेंगे तो बहुत अल्प। प्रार्थना कर रहे हैं, हटा लो! पांच साल बाद उसने अनिर्वाण से कहा, आपने कुछ मुझे कहा अर्जुन यह कह रहा है, तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं, तुम्हारा तत्व। मैं तो | नहीं, हालांकि मैंने बहुत कुछ सुना। अनिर्वाण ने कहा, यही मेरी तुम्हें सारभूत जानना चाहता हूं। तुम क्या करते हो, वह मुझे मतलब | | एकमात्र महत्वाकांक्षा थी। जब से मैं जन्मा हूं, जब से मुझे होश है, नहीं है। तुम क्या हो? तुम्हारा डूइंग नहीं, तुम्हारी बीइंग। मैं तुम्हारे | | तब से मेरी एक ही महत्वाकांक्षा थी कि किसी को मैं मौन से कुछ उस केंद्र को जानना चाहता हूं, जहां कोई गति नहीं है, जहां कोई कह पाऊं। लेकिन मौन होने के लिए कोई राजी नहीं होता। कर्म नहीं है, जहां सब शांत और मौन है। प्रवृत्ति को हटा लो। पांच साल चुप बैठी रही। दो साल निरंतर उनके पास चुप लेकिन वह कह जरूर रहा है, लेकिन उसे पता नहीं कि वह साथ बैठ-बैठकर वह क्षमता आई. जब उनका मौन थोडा-सा स्पर्श ही अपना विरोध भी कर रहा है। एक तरफ वह कहता है, हटा लो | | करने लगा। पांच साल होने पर सुनाई पड़ना शुरू हुआ। पांच साल यह उग्र रूप और प्रसन्न हो जाओ। प्रसन्नता भी प्रवृत्ति है। और दूसरी | पूरे होने पर जब उस महिला ने कहा कि अब मैं सुन पाती हूं, जो तरफ वह कह रहा है कि प्रवृत्ति का मुझे कुछ पता नहीं। जानना भी आप मौन में कहते हैं। तो अनिर्वाण ने कहा कि बस, तेरा काम पूरा नहीं चाहता। तत्व जानना चाहता हूं। प्रसन्नता तत्व नहीं है। प्रसन्नता | हो गया। अब तू यहां से जा। क्योंकि अब तू कहीं भी हो, तो सुन भी कर्म है। जैसे उग्रता कर्म है, वैसे प्रसन्नता कर्म है। जैसे मृत्यु कर्म पाएगी। क्योंकि मौन के लिए कोई बाधा नहीं है। शब्द के लिए दूरी है. वैसे जीवन भी कर्म है। लेकिन हम चनाव करते ही चले जाते हैं। बाधा है। अब त जा. तेरा काम परा हो गया। वह कहता है कि प्रसन्नता, आनंदित हो जाइए। वह भी मानेगा कि । उस महिला ने लिखा है, अंतिम क्षण विदा देते वक्त जब हाथ शायद आनंदित होना ही तत्व है। वह भी तत्व नहीं है। जोड़कर हम नमस्कार करके अलग हो गए, तब मुझे खयाल आया तत्व तो शून्य है। और शून्य को देखने की क्षमता बड़ी मुश्किल |कि पांच साल हो गए मैंने उनके हाथ का भी स्पर्श नहीं किया! है। हम प्रवृत्ति को ही देख पाते हैं। शून्य को हम कहां देख पाते हैं! | लेकिन पांच साल तक मुझे खयाल नहीं आया कि मैंने अनिर्वाण शून्य जब प्रवृत्ति बनता है, तभी हमारी पकड़ में आता है। नहीं तो | | के शरीर को छुआ तक नहीं है, हाथ का भी स्पर्श नहीं किया। यह कहां पकड़ में आता है! | विदा होने पर खयाल आया। और तब उसे लगा कि यह खयाल ही मैं यहां चुप बैठ जाऊं, तो मेरा मौन आपको पकड़ में नहीं इसलिए आया कि मौन में निकटता इतनी गहन थी कि और स्पर्श आएगा। जब मेरा मौन शब्द बनता है, तब आपको सुनाई पड़ता उससे ज्यादा क्या निकटता दे सकता है! है। जो मैं कहना चाहता हूं, वह तो मेरे मौन में है। जब मैं उसे शब्द लेकिन अगर आप कहें, मौन में सुनना है, तो फिर मौन होने की 342
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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