________________
पूरब और पश्चिम ः नियति और पुरुषार्थ 8
कला सीखनी पड़े। वह अर्जुन कह रहा है कि मैं आपको देखना चाहता हूं आपके तत्व में। लेकिन तत्व में केवल वही देख सकता है, जो स्वयं तत्व होने को राजी हो, शून्य होने को राजी हो।
शून्य होने को जो राजी है, वह इस जगत के शून्य को देख लेगा। जब तक हम शून्य होने को राजी नहीं हैं, तब तक हमें प्रवृत्ति ही दिखाई पड़ेगी। और जब तक प्रवृत्ति है, तब तक चुनाव रहेगा। हम कहेंगे, उदासी हटाओ, रुद्रता हटाओ, यह क्रूरता हटाओ, यह मृत्यु का उग्र रूप बंद करो। मुस्कुराओ, प्रसन्न हो जाओ। हम चुनेंगे, हमारी पसंद की प्रवृत्ति!
ध्यान रहे, इस सूत्र में थोड़ी एक बात खयाल ले लेने जैसी है। संसार को अक्सर हम कहते हैं, प्रवृत्ति का जाल। और संन्यासी को हम कहते हैं निवृत्ति, प्रवृत्ति से हट जाना। लेकिन संसार प्रवृत्ति का जाल है, यह तो सच है। और कोई कितना ही संसार से भागे, संसार के बाहर नहीं जा सकता, यह भी ध्यान रखना। जहां भी जाएं, वहीं संसार है। कहीं भी जाएं, वहीं संसार है, क्योंकि सभी तरफ प्रवृत्ति है, उसकी। कहीं बाजार की प्रवृत्ति है। कहीं वृक्षों में पक्षियों की कलकलाहट है। कहीं नदी में पानी का शोर है। कहीं पहाड़ों का सन्नाटा है। लेकिन सब उसकी ही प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं।
प्रवृत्ति के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि प्रवृत्ति में चुनना मत। यह मत कहना कि यह विकराल है, हटाओ; प्रसन्न को प्रकट करो। यह चुनाव बांधता है, प्रवृत्ति नहीं बांधती। और जो प्रवृत्ति में चुनाव नहीं करता, वह अचानक शून्य हो जाता है। क्योंकि चुनाव से ही भीतर का शून्य खंडित होता है। जो शून्य हो जाता है, वह उसे तत्व से जान लेता है।
अर्जुन कहता है, हे भगवन्, कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ, आपको नमस्कार होवे। आप प्रसन्न होइए। आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं। क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को न मैं जानता हूं, न आपकी प्रवृत्ति से मुझे कोई बहुत प्रयोजन है। आप क्या है, वही मैं जानना चाहता हूं।
आज इतना ही। पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, फिर जाएं।
343