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________________ गीता दर्शन भाग- 50 फलां ऋषि ने फलां ऋषि से कहा। उन्होंने फिर किसी और से कहा; लोग ठीक कहते हैं, तो फिर ठीक क्या है? महावीर कहते हैं कि फिर उन्होंने किसी और से कहा; फिर मैंने किसी से सुना। यह मात्र बड़े से बड़े असत्य में भी थोड़ा-बहुत सत्य तो होता ही है। उतना गहन विनम्रता का परिणाम है। मैंने देखा, इसे कहने में कोई सत्य तो होता ही है। उस सत्य को हम पकड़ लें। और महावीर कठिनाई नहीं है। इसे कहने में कोई अड़चन भी नहीं है। अर्जुन कहते हैं कि बड़े से बड़े सत्य में भी व्यक्ति का अहंकार थोड़ा न अभी कह सकता है कि मैंने देखा। लेकिन अर्जुन कहता है, मेरा बहुत प्रवेश कर जाता है, उतना असत्य हो जाता है। उस असत्य मत। बस, मेरा ऐसा विचार है। आग्रह नहीं है कि मैं जो कह रहा को हम छोड़ दें। हूं, वह सत्य ही है। क्यों? इसलिए वे कहते हैं कि जो कहता है, आत्मा नहीं है, उसकी बात शायद इस आघात के क्षण में, इस गहन शक्ति का आघात हुआ में भी थोड़ा सत्य है। कम से कम इतना सत्य तो है ही कि संसारी है उसके ऊपर, इस क्षण में उसे मैं का कोई पता भी नहीं चल रहा व्यक्ति का अनुभव यही है कि आत्मा नहीं है। आपका भी अनुभव होगा। इस क्षण में उसे खयाल भी नहीं आ रहा होगा कि मैं भी हूं। यही है कि आत्मा नहीं है। आपका अनुभव यही है कि शरीर है। इसलिए कह रहा है, मेरा मत है। यह मत माना भी जाए तो ठीक, तो महावीर कहते हैं, अगर चार्वाक कहता है कि आत्मा नहीं है, न भी माना जाए तो ठीक। यह गलत भी हो। तो ठीक ही कहता है। करोड़ों लोगों का अनुभव है कि हम शरीर मत और सत्य में इतना ही फर्क होता है। जब कोई कहता है, हैं। आत्मा का पता किसको है! इतना सत्य तो है ही। यह सत्य है, तो उसका अर्थ यह है, यह गलत नहीं हो सकता। और | और अगर हम लोकतंत्र के हिसाब से सोचें, तो शरीरवादी का जब कोई कहता है, यह मत है, तो वह यह कह रहा है कि यह गलत | ही सत्य जीतेगा। आत्मवादी का कैसे जीतेगा? कभी करोड़ में एक भी हो सकता है। यह मेरा है, इसलिए गलत भी हो सकता है। आदमी अनुभव कर पाता है कि आत्मा है। करोड़ में एक! बाकी हमारी स्थिति उलटी है। जिस चीज को हम कहते हैं सत्य, हम | | शेष तो अनुभव करते हैं कि वे शरीर हैं। उसे सत्य ही इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह मेरा है। अगर आपसे इसलिए हमने एक बड़ी अदभुत बात की है। हमने चार्वाक को कोई पूछे कि हिंदू धर्म सत्य क्यों है? या कोई पूछे कि मुसलमान | | जो नाम दिए हैं-नास्तिक विचार को भारत में-वे बड़े धर्म सत्य क्यों है? या कोई पूछे कि जैन धर्म सत्य क्यों है ? तो जैनी | | विचारणीय हैं। दो नाम हैं चार्वाक के, एक तो चार्वाक और दूसरा कहेगा कि जैन धर्म सत्य है। हजार कारण बताए, लेकिन मूल में लोकायत। दोनों बड़े मीठे हैं। कारण यह होगा कि वह मेरा धर्म है। हिंदू हजार कारण बताए, लोकायत का मतलब है, जिसे लोग मानते हैं, जो लोक में लेकिन मूल में कारण होगा कि वह मेरा धर्म है। चाहे वह कहे और | प्रभावी है। बड़े मजे की बात है, अगर आप खोजने जाएं, तो एक चाहे न कहे। लेकिन अगर विश्लेषण करे, तो उसे पता चलेगा कि | भी आदमी जनगणना के वक्त अपने को नास्तिक नहीं लिखवाता जो भी मेरा है, वह सत्य होना ही चाहिए। | है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है, यह अहंकार का आरोपण है। सत्य, मेरे होने से सत्य नहीं होता। | कोई बौद्ध है। लेकिन हमारी परंपरा कहती है कि चार्वाक को मानने सच तो यह है कि मेरे होने से मेरा सत्य भी असत्य हो जाता है। | वाले सर्वाधिक लोग हैं। हालांकि कोई नहीं लिखवाता कि मैं सत्य होता है अपने कारण। और मैं जितना कम रहूं, उतना ज्यादा | चार्वाकवादी हूं। मगर हमारी परंपरा कहती है कि करोड़ में एक को होता है। और मैं जितना ज्यादा हो जाऊं, उतना क्षीण हो जाता है। छोड़कर बाकी तो सब चार्वाक को ही मानते हैं। चाहे समझते हों, इसलिए अर्जुन कहता है, मेरा मत है। न समझते हों; चाहे कहते हों, चाहे न कहते हों। उनका अनुभव तो महावीर इस दिशा में अनूठे व्यक्ति हैं। महावीर से कोई पूछे कि | | यही है कि वे शरीर हैं। और इंद्रियों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। और आत्मा है? तो वे कहते हैं, है; ऐसा भी कुछ लोगों का मत है; वे | जो इंद्रियों का भोग है, वही जीवन है। भी ठीक कहते हैं। और ऐसा भी कुछ लोगों का मत है कि नहीं है, | | इसलिए हमने चार्वाक को–हालांकि कोई संप्रदाय मानने वाला वे भी ठीक कहते हैं। और ऐसा भी कुछ लोगों का मत है कि कुछ नहीं है-कहा, लोकायत, कि लोक जिसको मानता है। और भी नहीं कहा जा सकता, वे भी ठीक कहते हैं। चार्वाक शब्द भी बड़ा अदभुत है, उसका मतलब होता है हम अड़चन में पड़ जाएंगे महावीर के साथ, कि अगर सभी चारु-वाक, जिनके वचन बड़े मधुर हैं। बड़ी उलटी बात है। क्योंकि 1300/
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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