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________________ ॐ परमात्मा का भयावह रूप हमें तो बुरे लगेंगे चार्वाक के वचन। जो भी सुनेगा कि ईश्वर नहीं को तृप्त कर लेते हैं। जो नासमझ हैं, वे बुद्ध बन जाते हैं और तृप्त है, आत्मा नहीं है, हमें तो बुरे लगेंगे, कटु लगेंगे। लेकिन हमारी नहीं कर पाते। हमको भी लगेगी यह बात भीतर-ऊपर से हम परंपरा ने नाम दिया है चारु-वाक, जिनके वचन बड़े मधुर हैं। | कहेंगे कि नहीं लेकिन भीतर हमको लगेगी कि बात तो बड़ी हम बड़े सोचकर शब्द दिए हैं। हम ऊपर से कितना ही कहें कि रुचिकर है, कि भोग लो। चार्वाक ने कहा है, क्षण की खबर नहीं है। हमें यह बात जंचती नहीं कि ईश्वर नहीं है, भीतर यह बात बड़ी | अगला क्षण होगा या नहीं होगा, नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस प्रीतिकर लगती है। भीतर बड़ा रस आता है कि ईश्वर नहीं है, क्षण को निचोड़ लो पूरा। जितना भोग सकते हो, भोग लो। बेफिक्र! कोई फिक्र नहीं। चोरी करो, बेईमानी करो, हत्या करो। ___ हम कहते कुछ हों, करते यही हैं। न कर पाते हों, तो पछताते ऊपर से हम भला कहें कि नहीं, यह बात जंचती नहीं; भीतर बहुत | हैं। और जो कर लेता है, उससे हमारी ईर्ष्या है। उससे हमारी ईर्ष्या जंचती है। तो फिर कोई भी पाप नहीं है। पकड़ जाती है। दोस्तोवस्की ने लिखा है कि अगर ईश्वर नहीं है, देन एवरीथिंग ___ आप किसी को भी सुख में देखकर बड़े दुखी हो जाते हैं। भला इज़ परमिटेड। अगर ईश्वर नहीं है, तो फिर हर चीज की आज्ञा मिल | | आप कहते हों, धन में कुछ भी नहीं है, लेकिन जिसके पास धन गई। फिर कुछ भी करने में कोई हानि नहीं है। अगर ईश्वर है, तो है, उसको देखकर आपको विपदा शुरू हो जाती है, भीतर कष्ट अड़चन है। ईश्वर का डर घेरे ही रहता है। कितने ही अकेले में चोरी | शुरू हो जाता है। भला आप कहते हों कि शरीर में क्या रखा है, कर रहे हों, फिर भी लगा रहता है कि कम से कम कोई एक देख | यह तो मल-मूत्र है। लेकिन एक सुंदर स्त्री दूसरे के साथ देखकर रहा है। अगर नहीं है कोई, तो आदमी स्वतंत्र है। प्रीतिकर लगेगा | बेचैनी शुरू हो जाती है। भीतर कि कोई ईश्वर नहीं है। हम ऊपर से कुछ कहते हों, लेकिन भीतर से हम सब 'नीत्शे ने कहा है, गॉड इज़ डेड। ईश्वर मर गया। और अब तुम्हें चार्वाकवादी हैं। इसलिए हमने दो शब्द दिए हैं, लोकायत, और जो भी करना हो, तुम कर सकते हो। आदमी स्वतंत्र है। नाउ मैन | मधुर वचन वाले लोग, चार्वाक। इज़ फ्री। ईश्वर ही उसका बंधन था, नीत्शे ने कहा है, वही इसकी ___ यह जो चार्वाक कहता है, इसमें भी महावीर कहते हैं, थोड़ा सत्य रहा था कि यह मत करो. वह मत करो। यह बरा है है। क्योंकि अधिक लोगों का अनभव तो यही है। हम जो कहते हैं. यह भला है; यह पाप, यह पुण्य; यह नर्क, यह स्वर्ग। नीत्शे ने | महावीर कहेंगे, वह तो कितने थोड़े लोगों का सत्य है! इसलिए कहा कि ईश्वर मर चुका है और अब मनुष्य स्वतंत्र है; और अब महावीर कहते हैं, जो भी कहा जाए, उसको मत की तरह व्यक्त तुम्हें जो करना हो, करो। करना, सत्य की तरह व्यक्त मत करना। कहना कि यह हमारा एक स्वतंत्रता तो हम सभी चाहेंगे। इसलिए ऊपर से हम भला कहते मत है, विपरीत मत भी हो सकते हैं। वे भी ठीक हो सकते हैं। . हों कि चार्वाक के वचन कटु मालूम पड़ते हैं, भीतर हम भी चाहते अनेक मत हो सकते हैं, वे भी ठीक हो सकते हैं। आग्रह मत करना हैं कि ईश्वर न हो। क्यों? क्योंकि अगर ईश्वर न हो, तो हमारे ऊपर | कि यही सत्य है। क्योंकि यह आग्रह सत्य को कमजोर कर देता है, से सारा दबाव हट गया। फिर कोई दबाव नहीं है। फिर आदमी | मैं को मजबूत कर जाता है। उत्तरदायित्वहीन है। फिर कोई दायित्व नहीं है। फिर कोई जवाब | थोड़ा ध्यान रखें, जितना आग्रह हम करते हैं, आग्रह सत्य को मांगने वाला नहीं है। फिर जिंदगी स्वच्छंद होने के लिए मुक्त है। नहीं मिलता, अहंकार को मिलता है। इसलिए धार्मिक आदमी तो भला हम कहते हों कि ये बातें जंचती नहीं हैं। लेकिन चार्वाक विनम्र होगा। और अगर धार्मिक आदमी विनम्र नहीं है, तो धार्मिक की बातें हमारे मन को बड़ी प्रीतिकर लगती हैं। चार्वाक ने कहा है | नहीं है। कि अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े, तो लेते रहना ऋण, क्योंकि | । इसलिए हमने अपने इस मुल्क में कभी किसी आदमी के धर्म मरने के बाद न कोई लेने वाला है, न कोई देने वाला है, न कोई । | को कनवर्ट करने की चेष्टा नहीं की। कभी आग्रह नहीं किया कि चुकतारा है। कोई लेना-देना नहीं है, कोई ऋणी नहीं है, कोई धनी | हम एक आदमी को समझा-बुझाकर, जबर्दस्ती, कोई भी उपाय नहीं है। सिर्फ नासमझ और समझदार लोग हैं। करके, एक धर्म से दूसरे धर्म में खींच लें। क्योंकि यह कृत्य ही चार्वाक ने कहा है, जो समझदार हैं, वे सब तरह से अपनी इंद्रियों अधार्मिक हो गया। यह आग्रह करना कि मैं जो कहता हूं, वही ठीक 301
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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