________________
परमात्मा का भयावह रूप
देखे, तो बहुत हैरान हो जाएगी; आप उलटे मालूम पड़ेंगे ऊपर! कर लेगा। मैं उन्मत्त हो गया हूं। मछली को लगेगा कि आप शीर्षासन कर रहे हैं, क्योंकि सिर ऊपर, | | यह बात पागल की ही है। हमें भी लगेगा कि पागल की है। पैर नीचे! और उसने सदा आपको नीचे देखा था, सिर नीचे, पैर | लेकिन लगना इसलिए स्वाभाविक है कि हमें ऐसा कोई भी अनुभव ऊपर। आप उलटे दिखाई पड़ेंगे। प्रतिबिंब उलटा हो जाता है। नहीं है, जहां दूसरा विलीन हो जाता है और केवल देखने वाला ही संसार प्रतिबिंब है। इसलिए संसार में शब्दों का जो अर्थ होता
रह जाता है। है, ठीक उलटा अर्थ अध्यात्म में हो जाता है। यही खयाल दृष्टि के | | यह जो अर्जुन को घटित हो रहा है, वह दिव्य-दृष्टि है। जो बाबत भी रखें। दृष्टि का अर्थ है, देखने की क्षमता। दृष्टि का अर्थ | | संजय के पास है, वह दूर-दृष्टि है। है, दूसरे को देखने की योग्यता। लेकिन अध्यात्म में तो दूसरा कोई | __ अब हम सूत्र को लें। बचता नहीं है। इसलिए दूसरे का तो कोई सवाल नहीं है। और दृष्टि | इसलिए हे भगवन्, आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं। का अर्थ सदा दूसरे से बंधा है, आब्जेक्ट से, विषय से। तो दृष्टि | | परमब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं। आप का वहां क्या अर्थ होगा?
ही अनादि धर्म के रक्षक हैं। आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। महावीर ने कहा है कि जब सब दृष्टि खो जाती है, तब दर्शन ऐसा मेरा मत है। उपलब्ध होता है। जब सब देखना-वेखना बंद हो जाता है, जब __ अर्जुन अति विनम्र है। और जो भी जान लेते हैं, वे अति विनम्र कोई दिखाई पड़ने वाला भी नहीं रह जाता, जब सिर्फ देखने वाला हो जाते हैं। विनम्रता जानने की शर्त भी है और जानने का परिणाम ही बचता है, तब दर्शन उपलब्ध होता है। जब देखने वाला, द्रष्टा भी। जो जानना चाहता है, उसे विनम्र होना होगा, झुका हुआ। और ही बचता है, तब, तब दिव्य-दृष्टि उपलब्ध होती है। जो जान लेता है, वह अति विनम्र हो जाता है। शायद जान लेने के • यहां दिव्य-दृष्टि कहना बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। क्यों कहें बाद उसे विनम्र होना ही नहीं पड़ता. विनम्रता उस पर छा जाती है: दृष्टि? जब दृष्टियां खो जाती हैं सब, जब सब बिंदु, देखने के ढंग वह एक हो जाता है विनम्रता के साथ। खो जाते हैं, जब सब माध्यम देखने के खो जाते हैं और शुद्ध चैतन्य | | अर्जुन देख रहा है अपनी अनुभूति में सब घटित हुआ, फिर भी रह जाता है, तब दृष्टि क्यों कहें? लेकिन फिर हम न समझ पाएंगे। कहता है, ऐसा मेरा मत है। हमारा ही शब्द उपयोग करना पड़ेगा, तो ही इशारा कारगर हो | यह थोड़ा विचारें। सकता है।
अर्जुन देख रहा है। वह कह सकता है कि मैं देख रहा हूं। वह ...दूर-दृष्टि तो दृष्टि है। दिव्य-दृष्टि, समस्त दृष्टियों से मुक्त कह सकता है कि मेरा अनुभव है। लेकिन कहीं मेरा अनुभव कहने होकर द्रष्टा मात्र का रह जाना है। तब जो अनुभव होता है, वह से मैं को बल न मिले। वह कहे कि मेरी प्रतीति है, तो कहीं प्रतीति अनुभव ऐसा नहीं होता कि मैं बाहर से किसी को देख रहा हूं। तब | | गौण न हो जाए और मेरा होना महत्वपूर्ण न हो जाए! अनुभव होता है कि जैसे मेरे भीतर कुछ हो रहा है। सारा जगत जैसे | | इसलिए अर्जुन कहता है कि हे भगवन्। आप ही हैं अक्षर, मेरे भीतर समा गया हो। सब कुछ मेरे भीतर हो रहा हो। अविनाशी, परम आश्रय, रक्षक, ऐसा मेरा मत है-दिस इज़ माई
स्वामी राम को जब पहली दफा समाधि का अनुभव हुआ, तो | ओपिनियन। यह सिर्फ मेरा मत है, यह गलत भी हो सकता है। यह वे नाचने लगे। रोने भी लगे, हंसने भी लगे, नाचने भी लगे। जो | सही भी हो सकता है। मैं कोई आग्रह नहीं करता कि यह सत्य है। पास थे इकट्ठे, उन्होंने कहा कि आपको क्या हो रहा है? आप उन्मत्त इस कारण कई बार बड़ी कठिनाई खड़ी होती है। जो अहंकारी तो नहीं हो गए हैं? स्वामी राम ने कहा कि समझो कि उन्मत्त ही हो हैं. वे अपने मत को भी इस भांति कहते हैं, जैसे प्रतीति हो गया हूं। क्योंकि आज मैंने देखा कि मेरे भीतर ही सूरज उगते हैं, | सत्य है। वे जो नहीं जानते, केवल सोचते हैं, उसको भी इस भांति और मेरे भीतर ही चांद-तारे चलते हैं। और आज मैंने देखा कि मैं | घोषणापूर्वक कहते हैं कि लगे कि यह उनका अनुभव है। और जो आकाश की तरह हो गया हूं; सब कुछ मेरे भीतर है। और आज जान लिए हैं, वे इस भांति कहते हैं कि ऐसा लगे कि उन्होंने भी मैंने देखा कि वह मैं ही हूं, जिसने सबसे पहले सृष्टि को जन्म दिया | | किसी से सुना होगा। था। और वह मैं ही हूं, जो अंत में सारी सृष्टि को अपने में लीन पुराने ऋषियों की बड़ी पुरानी आदत है कि वे कहते हैं, ऐसा
कि यह
299