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गीता दर्शन भाग-5
सुनिश्चित है। क्योंकि करीब आकर पता चलेगा, करीब आ गए, और करीब नहीं आए। पास आ गए, और दूरी बनी है! और तब पीड़ा भारी हो जाती है।
कितने ही हम पास आ जाएं किसी चीज के, परिचय ही होता है, ज्ञान नहीं होता । ज्ञान का तो एक ही उपाय है और वह यह है कि हम उस चीज के साथ एक हो जाएं, एकाकार हो जाएं।
यह बड़ा कठिन है। असंभव मालूम पड़ता है। प्रेमी भी सफल नहीं हो पाते अपने प्रेम-पात्र के साथ एक होने में। कवि भी सफल नहीं हो पाता, चित्रकार भी सफल नहीं हो पाता फूल के साथ एक होने में।
इसलिए सिर्फ धर्म के अतिरिक्त सभी कुछ परिचय है। सिर्फ धर्म ही ज्ञान का द्वार है। क्योंकि धर्म एक ऐसी प्रक्रिया को खोजा है— जिसे मैंने ध्यान कहा; योग कहें समाधि कहें- ऐसी प्रक्रिया है, जहां एक चेतना की लौ दूसरी चेतना की लौ में लीन हो जाती है।
स्वभावतः, दो शरीर एक नहीं हो सकते, लेकिन दो आत्माएं एक हो सकती हैं। दो शरीर इसलिए एक नहीं हो सकते कि उनकी सीमाएं हैं। और उनकी सीमाएं मौजूद रहेंगी। दो आत्माएं एक हो सकती हैं, क्योंकि आत्मा की कोई सीमा नहीं है।
जितनी सीमा तरल होगी, उतनी एकता आसान है। दो पत्थर के टुकड़ों को हम पास रख दें, तो वे एक नहीं हो पाते, क्योंकि उनकी सीमा मजबूत है। हम दो पानी की बूंदों को पास रख दें; वे एक हो जाती हैं। उनकी सीमा तरल है; सीमा सख्त नहीं है।
शरीर की सीमा पत्थर की तरह सख्त है। आत्मा की सीमा पानी की तरह तरल है। शायद पानी की तरह कहना भी ठीक नहीं, भाप की तरह। भाप की तरह। दो भाप के गुब्बारे उड़ें आकाश में, एक गुब्बारा हो जाता है। कोई बाधा नहीं है।
एक कमरे में हम दो दीए जला दें; दोनों का प्रकाश एक हो जाता है । कहीं कोई टकराहट भी नहीं होती। हजार दीए जला दें हम एक ही कमरे में, तो भी कमरे में कोई कांपिटीशन, कोई प्रतिस्पर्धा खड़ी नहीं होगी, कि दीए कहने लगें कि बहुत हो गया, इनफ, रुको अब ! इस कमरे में ज्यादा दीए की रोशनी नहीं समा सकती। यहां तो एक दीया पहले से ही रोशन कर रहा है। अब दूसरा दीया यहां कैसे आ सकता है! दूसरा दीया आ जाए, उसकी रोशनी भी पहले दीए की रोशनी से एक हो जाती है। तीसरा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती चौथा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती है। दीए अलग रह जाते हैं, रोशनी एक हो जाती है।
शरीर अलग रह जाते हैं ध्यान में, आत्मा एक हो जाती है। इसलिए अगर एक कमरे में बीस लोग ध्यान कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं, आत्मा एक होती है। अगर ध्यान कर रहे हों तो ! अगर विचार कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं और हजार आत्माएं होती हैं। अगर विचार कर रहे हों तो ! तब तो एक-एक आदमी के भीतर अनेक आत्माएं हो जाती हैं। इतने खंड, इतने टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर ध्यान कर रहे हों, तो सब शून्य हो जाता है।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि बुद्ध एक महानगरी के पास विश्राम को रुके। दस हजार भिक्षु उनके साथ हैं। उस नगर का राजा | है अजातशत्रु । नाम है उसका अजातशत्रु, ऐसा व्यक्ति जिसका शत्रु | पैदा ही न हुआ हो। जिसका शत्रु अजन्मा है, ऐसा उसका नाम है। ऐसा बहादुर आदमी भी था वह। लेकिन तलवार पर जिनकी | बहादुरी निर्भर होती है, शरीर की ताकत पर जिनकी बहादुरी निर्भर | होती है, वे कितने ही बहादुर हों, भीतर तो कमजोर होंगे ही।
अजातशत्रु को उसके आमात्यों ने, उसके मंत्रियों ने कहा कि बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी उनके दर्शन को चलें। तो अजातशत्रु ने कहा, चलूंगा। लेकिन मेरे साथ मेरी फौज भी चलेगी। मंत्रियों ने कहा, यह उचित न होगा। बुद्ध के पास फौज लेकर क्या जाना? आप अकेले ही चलें। दस-पांच आपके साथी, | मित्र, परिवार के चल सकते हैं। फिर भी अजातशत्रु, को डर लगा कि पता नहीं, कोई षड्यंत्र न हो ! कहीं ये मंत्री किसी उपद्रव में न ले जा रहे हों। फिर उसने सारा पता लगाया। बुद्ध आए हुए हैं। दस हजार भिक्षु ठहरे हैं गांव के बाहर ही, आम्रवन में।
तो एक सांझ वह गया। रास्ते पर ही उसने अपना रथ छोड़ दिया, अपने मंत्रियों के साथ आगे बढ़ने लगा। मंत्रियों ने कहा कि बस | यह जो वृक्षों की पंक्ति दिखाई पड़ रही है, इसके उस पार ही बुद्ध | के दस हजार भिक्षुओं का डेरा है! वृक्षों की पंक्ति करीब आने लगी। अजातशत्रु ने चौंककर अपनी तलवार बाहर निकाल ली और अपने मंत्रियों से कहा कि मुझे कुछ संदेह मालूम पड़ता है! जहां दस हजार लोग रुके हों, वहां आवाज तो जरा-सी भी नहीं हो रही है! यह नहीं हो सकता। दस हजार लोग रुके हों इस पंक्ति के पार, | तो भारी बाजार मच जाएगा। मुझे कुछ शक मालूम पड़ता है, यह कोई धोखा है।
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मंत्रियों ने कहा कि आप तलवार भीतर रखें। शक मालूम पड़ता हो, तो बाहर भी रखें। थोड़ा और आगे चलें। दस हजार लोग ही ठहरे हैं। लेकिन ये लोग और तरह के लोग हैं। जिनको आपने