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________________ स्वभाव की पहचान बाजार में देखा है, उस तरह के लोग नहीं हैं। जानता हूं। क्या है मेरा बिलीफ, मेरा विश्वास; और क्या है मेरा और जब अजातशत्रु बुद्ध के पास गया, तो चकित हो गया। वहां | ज्ञान, मेरी अनुभूति; इसका फासला एकदम स्पष्ट होना चाहिए। दस हजार लोग बैठे थे वृक्षों के तले। चुप थे, आंखें उनकी बंद थीं। इसलिए अर्जुन ने कहा कि मैं मानता हूं कि आप जो कहते हैं, बुद्ध से अजातशत्रु ने पूछा है कि ये दस हजार लोग इतने चुप क्यों | सत्य है। आप ईश्वर हैं। आप समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाले, बैठे हैं? तो बुद्ध ने कहा है, क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं। | समस्त भूतों के ईश्वर, देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं; इस समय ये ध्यान में हैं। | पुरुषोत्तम! लेकिन यह सब मान्यता है मेरी। क्योंकि आप स्वयं ही ध्यान का अर्थ हुआ कि हमारी जो आत्मा है, वह जब शांत हो | अपने से आपको जानते हैं। यह सब भी मैं कहूं, तो यह मेरा जानना जाती है, तो तरलता से आस-पास फैल जाती है, जुड़ जाती है, एक | नहीं है। यह मेरा भाव है, मेरा ज्ञान नहीं। यह मेरी श्रद्धा है, मेरी हो जाती है। प्रतीति, मेरा साक्षात्कार नहीं। ज्ञान, अगर ज्ञान का हम यही अर्थ करते हों कि किसी वस्तु को | |. इतना बारीक फासला स्पष्ट होना चाहिए साधक को, तो दूसरी उसके केंद्र से जानना, परिधि से नहीं; उसके बाहर से नहीं, उसके | घटना भी घट सकती है। जिसने ठीक से पहचाना कि क्या मेरी प्राणों में, उसके अंतस्तल में डूबकर जानना। अगर ज्ञान की यही | मान्यता है, वह फिर मान्यता से राजी नहीं होगा। फिर मान्यता में उसे परिभाषा हो, तो धर्म के अतिरिक्त ज्ञान का और कोई स्रोत नहीं है। | घबड़ाहट होने लगेगी। फिर बेचैनी होगी उसके मन को। और फिर क्योंकि धर्म ही उस कला का जन्मदाता है, जो आपकी सीमाओं को | वह तड़फेगा कि मैं जानूं कैसे? और जानने की यात्रा पर निकलेगा। तोड़ डालती है और आपको असीम के साथ एक होने का अवसर, | जिस आदमी ने मानने को ही समझ लिया कि जानना है, उसकी सुविधा और संभावना जुटा देती है। यात्रा ही समाप्त हो गई। वह मंजिल पर पहुंच ही गया, बिना पहुंचे! अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि आप स्वयं ही अपने से आपको | | उसने पा ही लिया, बिना पाए! वह सिद्ध हो ही गया, साधन से जानते हैं। मैं कैसे आपको जान सकता हूं! मैं दूर हूं। मैं बाहर हूं। | गुजरे बिना! साधना से गुजरे बिना, उपलब्धि हो गई उसे! उसने मैं और हूं। आप कृष्ण हैं, मैं अर्जुन हूं। फासला है, मैं मान ही | मान लिया। सकता हूं। इस जगत में अधिक लोग इसलिए ठहर जाते हैं, क्योंकि आगे ध्यान रहे, इसी को मैं उसकी ईमानदारी कह रहा हूं। आप अपने उपाय ही नहीं बचता। आप जान ही लेते हैं बिना जाने, तो फिर आगे मानने को भी जानना कहने लगते हैं, तब बेईमानी हो जाती है। | यात्रा करने को कुछ बचता नहीं। एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर अगर आप भी कहें कि मैं ईश्वर को मानता हूं, जानता नहीं; तो मैं | को जानता हूं, बात खतम हो गई। अब जाने को कहीं बची भी नहीं कहूंगा, आप ईमानदार आदमी हैं, और किसी दिन धार्मिक भी हो कोई जगह। सकते हैं। फासला कायम रखें। स्पष्टता से समझें कि यह मेरी मान्यता है, लेकिन हम मानने की बात ही नहीं करते। हम कहते हैं, मैं | मेरा जानना नहीं। और जानना अभी शेष है, और अभी मुझे चलना जानता हूं कि ईश्वर है! इतना ही नहीं, हम ईश्वर---जिसको हम | होगा, और अभी मुझे संघर्ष करना होगा, और अभी मुझे बड़ा सिर्फ मानते हैं, जानते नहीं-उसके लिए लड़ सकते हैं, काट-पीट | | रास्ता बाकी है, जिसे पूरा करना है, और तब कहीं मैं जानने तक कर सकते हैं, हत्याएं कर सकते हैं। लोग मंदिर जलाते हैं, मस्जिद | पहुंच पाऊंगा। जलाते हैं, गिरजे तोड़ डालते हैं। इतना पक्का है उनका जानना कि लेकिन हम आंख बंद करके यहीं बैठ जाते हैं रास्ते के किनारे। दूसरे का गलत होना इतना सही है कि अगर हत्या भी करनी पड़े, पड़ाव मंजिल बन जाता है। और अगर हमसे कोई कहे कि यह तो वे पीछे नहीं हटते। पड़ाव है, मंजिल नहीं है; यहां मत डेरा डालो; उठो! तो हम नाराज मानने वाले लोग, जिनको कुछ भी पता नहीं है, इतने अहम्मन्य होंगे। क्योंकि यह आदमी हमारी नींद खराब करता है। क्योंकि यह हो सकते हैं, उसका एक ही कारण है कि वे अपने मानने को जानने | आदमी हमारे विश्राम को तोड़ रहा है। क्योंकि हम मानकर बैठ गए, की भ्रांति में पड़ जाते हैं। अपनी तरफ बेईमानी हो जाती है। | मजे में हो गए। शांत हो गए। झंझट मिटी। अब कहीं जाने को न ठीक से समझ लेना चाहिए, क्या मैं मानता हूं और क्या मैं | | रहा। अब हम विराम कर सकते हैं, विश्राम कर सकते हैं। यह 83
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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