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________________ ॐ आंतरिक सौंदर्य ये दो रास्ते हैं। पहला रास्ता आमतौर से प्रचलित है, मैं उसके हैं, उसी कचरे के ढेर से पैदा हुए हैं। उसी का विस्तार हैं। उसी सख्त खिलाफ हूं। मेरी व्याख्या तो यही है कि जहां भी तुम्हारा प्रेम मवाद, उसी खून, उसी हड्डी-मांस का थोड़ा सा और फैलाव हैं। हो, वहां परमात्मा को देखना शुरू करना। प्रेमी को भूल जाना और अगर आपको प्रेम हटाना है संसार से, जबरदस्ती, तो आपको परमात्मा को देखना। धीरे-धीरे वही पौधा जो तुम्हारी पत्नी पर लगा घृणा पैदा करनी पड़ेगी। वैर-भाव पैदा करिए, तो आप कहीं प्रेम था, जड़ें फैला लेगा और परमात्मा में प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि को हटा पाएंगे। तुम्हारी पत्नी में काफी परमात्मा है। तुम्हारे पति में काफी परमात्मा और कृष्ण का दूसरा सूत्र है कि वैर-भाव किसी से रखना मत। है। कोई परमात्मा की वहां कमी नहीं है। और कहीं उखाड़कर ले | | इस संसार में किसी के प्रति वैर-भाव न रह जाए। बड़ी मुश्किल जाने की जरूरत नहीं है; वहीं गहरा करने की जरूरत है। बात है। संसार में वैर-भाव न रहे, यह तभी हो सकता है, जब प्रेम की गहराई प्रार्थना बन जाती है। और प्रेम अगर पूर्ण गहन संसार में प्रेम-भाव इतना गहरा हो जाए कि वैर-भाव न बचे। हो जाए, तो जहां पहुंच जाता है, वहीं परमात्मा है। तो संसार से प्रेम को मत तोड़ना, संसार में प्रेम की धारा को गहन __ कृष्ण कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। वे यह नहीं कहते कि उखाड़ | करना। गहन करना। और खोदना। और खोदना। और संसार के ले कहीं से। वे यह कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। जहां से भी दे, प्राणों तक प्रेम को पहुंचा देना। कोई वैर-भाव न रह जाएगा। और मुझको ही देना। तेरी नदी कहीं से भी गिरे, मेरे सागर में ही गिरे। उस प्राण के केंद्र पर ही परमात्मा है। रास्ता कोई भी हो, किनारे कोई भी हों; किनारों से छूटकर तू सागर पांच मिनट रुकेंगे। आज आखिरी दिन है, इसलिए बिना कीर्तन तक नहीं पहुंच सकेगा। किनारों में बहना मजे से, लेकिन जानना | | किए कोई भी न जाए। और बीच में कोई उठे न। जब तक धुन चले, कि ये किनारे भी सागर में पहुंचा रहे हैं। तब तक बैठे ही रहें, खड़े भी न हों। पांच मिनट साथ में जोर से जीवन की सारी प्रेम-धारा परमात्मा की तरफ बहने लगे, और कीर्तन में भागीदार हों। शरीर को भी थोड़ा भाग लेने दें। कहीं आसक्ति न रह जाए। यह मेरा अर्थ है। सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे। और जिस दिन सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे, उस दिन स्वभावतः जगत में कोई वैर-भाव न रह जाएगा। यह मेरी व्याख्या समझें, तो ही खयाल में आएगा। अगर आप पहली गलत व्याख्या समझते हैं, तो जगत पूरा वैरी हो जाता है। वह पति पत्नी को छोड़कर भागता है, पत्नी वैरी हो जाती है। और जिससे आप प्रेम को तोड़ते हैं, तो तटस्थ होना मुश्किल है। प्रेम को अगर तोड़ते हैं, तो घृणा पैदा करनी पड़ती है, तभी तोड़ पाते हैं। जिस पत्नी को मैंने प्रेम किया है, अगर आज उससे मैं प्रेम को हटाऊं, तो मुझे एक ही काम करना पड़ेगा कि मुझे इसके प्रति घृणा पैदा करनी पड़ेगी! इसलिए साधु-संत लोगों को कहते हैं कि क्या है तुम्हारी पत्नी में। मांस-हड़ी. मांस-मज्जा. पीप. खन. यही सब भरा हुआ है। इसको देखो। इसको देखने से वितृष्णा पैदा होगी। इसको देखने से घृणा पैदा होगी। किस पत्नी के पीछे दीवाने हो रहे हो, इसमें है ही क्या? सिर्फ कचरे का ढेर है भीतर। उसको जरा देखो। लेकिन जिस पत्नी में कचरे का ढेर है, और जो साधु-संन्यासी समझा रहे हैं, उनके भीतर क्या है? वही कचरे का ढेर है। और मजा यह है कि वे कचरे के ढेर से ही पैदा हुए हैं। जिस मां से पैदा हुए
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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