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गीता दर्शन भाग-5
भी पड़ते हैं, वे केवल और बड़ी हारों की तैयारी कर रहे होते हैं। जुए में जो हारता है, वह सोचता है, इस बार हार गया, भाग्य ने साथ न दिया, अगली बार जीत निश्चित है। और हारता चला जाता है। कभी-कभी जीत की झलक भी मिलती है। वह जीत की झलक और बड़ी हारों का आयोजन करवा देती है। उस झलक से लगता है कि जीत भी हो सकती है।
जीत जाता है, वह सोचता है कि एक बार जीत जाऊं, तो फिर रुक जाऊं। लेकिन जो एक बार जीत जाता है, रुकना असंभव है। क्योंकि जीत का जो स्वाद मन को लग जाता है, और जीतने की आकांक्षा प्रबल हो जाती है । वही आकांक्षा हार में ले जाती है। जो हारता है, वह सोचता है, अगली बार जीत जाऊंगा। जो इस बार जीतता है, वह सोचता है, जीत मेरे भाग्य में है; हर बार जीत | जाऊंगा। और अंततः जुआ ही चलता रहता है। सभी उसमें हारने वाले ही सिद्ध होते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, छलों में मैं जुआ हूं।
वह शुद्धतम छल है। कभी कोई जीतता नहीं, अंततः कोई जीतता नहीं । आखिर में हाथ खाली रह जाते हैं। खेल बहुत चलता है। लेकिन, हार-जीत बहुत होती है। कोई हारता, कोई जीतता; कोई बनता, और कोई मिटता ! बहुत खेल होता है। रुपये-पैसे इससे उसके पास जाते हैं। उससे इसके पास जाते हैं, बड़ा लेन-देन होता है। और आखिर में कोई जीतता नहीं। सिर्फ जीतने की और हारने की इस दौड़ में लगे हुए सभी लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, हार जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।
इसलिए जुआ जिंदगी का प्रतीक है। सारी जिंदगी जुआ है। इसलिए आप यह मत सोचना कि जो जुआ खेल रहे हैं, वही जुआ खेल रहे हैं। ढंग हैं बहुत तरह के जुआ खेलने के ! कुछ जरा हिम्मत का जुआ खेलते हैं, कुछ जरा कम हिम्मत का जुआ खेलते हैं। कुछ इकट्ठे दांव लगाते हैं, कुछ दांव छोटे-छोटे लगाते हैं। कोई बड़े दांव लगाते हैं, कोई टुकड़ों में दांव लगाते हैं । किन्हीं की जीत और हार प्रतिपल होती रहती है; किन्हीं की जीत और हार का इकट्ठा हिसाब मौत के क्षण में होता है। लेकिन हम सब जुआ खेल रहे हैं। और जब तक कोई व्यक्ति अपनी तरफ नहीं जाता, तब तक जुए में होता है।
इसे ऐसा समझें कि जो व्यक्ति भी दूसरे में उत्सुक है, वह जुए में ही होता है। दूसरे में उत्सुकता जुआ है, चाहे वह प्रेम की हो, चाहे धन की, चाहे यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। जब तक आप दूसरे पर निर्भर हैं, तब तक आप एक गहरा जुआ खेल रहे हैं। अगर आपको दूसरे भी अपने में उत्सुक मालूम पड़ते हैं, तो आप पक्का समझ लेना कि आप दोनों एक गहरे जुए में भागीदार हैं।
जुआ अकेले नहीं खेला जा सकता, उसमें दूसरे की जरूरत है। इसलिए जो व्यक्ति ध्यान की एकांतता को, अकेलेपन को उपलब्ध हो जाता है, वही जीवन के जुए के बाहर होता है।
जिस काम में भी दूसरे की जरूरत हो, समझ लेना कि जुआ होगा। जो काम भी दूसरे के बिना पूरा न हो सके, समझ लेना कि जुआ होगा। जिसमें दूसरा अनिवार्य हो, समझना कि वहां दांव है। | जिस क्षण आप बिलकुल अकेले होने को राजी हों, दूसरा बिलकुल ही अर्थपूर्ण न रह जाए, उस दिन आप समझना कि आप जुए के बाहर हो रहे हैं।
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जब तक कोई व्यक्ति दूसरे की उत्सुकता से मुक्त नहीं होता और उस उत्सुकता में लीन नहीं होता, जो स्वयं की है, तब तक जुए के बाहर नहीं होता।
ध्यान के अतिरिक्त जुए के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है। बाकी सब उपाय जुआ ही खेलने के हैं। यह दूसरी बात है कि कोई एक जुआ पसंद करता है, कोई दूसरा जुआ पसंद करता है। यह अपनी पसंद की बात है। लेकिन जिंदगी के आखिर में अगर कोई एक चीज आप मरते वक्त जान सकते हैं कि मैंने पा ली, तो वह आपकी ही आत्मा है। उसके अतिरिक्त आप जो भी पा लेंगे, मृत्यु आपसे छीन लेगी।
सुना है मैंने कि सिकंदर जब मरा, तो उस गांव में बड़ी हैरानी हो गई थी। सिकंदर की अर्थी निकली, तो उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके थे! लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। सभी एक-दूसरे से पूछने लगे कि ऐसी अर्थी हमने कभी नहीं देखी कि हाथ और अर्थी के बाहर लटके हों। यह क्या ढंग हुआ !
सांझ होते-होते लोगों को पता चला कि यह भूल से नहीं हुआ। भूल हो भी नहीं सकती थी। कोई साधारण आदमी की अर्थी न थी । सिकंदर की अर्थी थी। पता चला सांझ कि सिकंदर ने कहा था कि मरने के बाद मेरे दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके रहने देना, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ में भी कुछ है नहीं। वह दौड़ बेकार गई। वह जुआ सिद्ध हुआ ।
और यह वही आदमी है कि मरने के दस साल पहले एक यूनानी फकीर डायोजनीज से मिला था, तो डायोजनीज ने सिकंदर से पूछा