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गीता दर्शन भाग-5
मैंने बाद में पूछा कि बात क्या है? क्या ये दो ही आदमी यहां समझने वाले हैं इतने लोगों में? और यह नाम ले-लेकर पूछने की बात क्या है ? तो पता चला कि दोनों ने काफी दान किया है। जिसने दान किया, उसी के पास समझ भी हो सकती है ! और फिर कालीदास को जो मजा आ रहा है कि महात्मा बार-बार पूछते हैं, कालीदास, समझ में आया ! तो इतने लाखों लोगों में समझते हैं कि एक कालीदास समझदार है !
हमारा सारा ढंग अहंकार के आस-पास चलता है, उसी के पास जीता है। तो अच्छे पापी हैं, बुरे पापी हैं। बुरे पापी वे हैं, जो बुराई से अहंकार को भर रहे हैं। अच्छे पापी वे हैं, जो अच्छाई से अहंकार को भर रहे हैं। अहंकार पाप है। धर्म की गहन दृष्टि अहंकार पाप है।
साधक का एक ही काम है कि वह ऐसे जीए जैसे है नहीं। क्या करे? जहां भी उसे लगे, मेरा मैं उठ रहा है, वहीं साक्षी हो जाए और उसे कोई सहयोग न दे। रास्ते से चले, उठे, बैठे, गुजरे, ऐसे जैसे कि हवा आती हो, जाती हो । भीतर कहीं भी मौका न दे कि मैं निर्मित हो रहा हूं, मैं बन रहा हूं, मजबूत हो रहा हूं।
इसकी सतत स्थिति बनी रहे जागरण की, तो ही एक घड़ी आती है, जब मैं मिट जाता है और साधक शून्य हो जाता है। उसी शून्य में अवतरण होता है। उसी ना- कुछ में, जब सब जगह खाली हो जाती है, तो साधक अतिथिगृह बन जाता है, प्रभु के निवास का । फिर प्रभु उतर सकता है।
प्रभु उतर आए, फिर कोई ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। फिर तो ध्यान रखना भी बाधा है। फिर तो इसकी भी फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं कि मैं हूं या नहीं हूं। वह उतर आया, उसके बाद वह जाने। लेकिन जब तक वह नहीं उतरा है, तब तक साधक को अत्यंत सचेष्ट भाव से जीने की जरूरत है कि उसके भीतर कहीं भी मजबूत न होता हो।
मैं
बस, यह एक बात खयाल में रहे और आदमी अपने को सिफर करता जाए, शून्य करता जाए। एक घड़ी आ जाए कि भीतर कोई मैं का भाव न उठता हो। उसी घड़ी में मिलन हो जाएगा। उसी क्षण आप नहीं, और परमात्मा हो जाता है।
एक और मित्र ने पूछा है कि फूल खिलते हैं मौसम में, चांद उगता है समय से, पानी भाप बनता है सौ
. डिग्री पर । अगर सारा जगत प्रयोजनहीन है, तो इतनी नियमितता कैसे ? सारी क्रिया, गतिशीलता अगर लीला ही है, आनंद ही है, तो इतनी प्रगाढ़ नियमबद्धता क्यों है ?
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• न रहे, जहां खेल हो, वहां नियम का बहुत ध्यान
ध्या रखना पड़ता है। खेल टिकता ही नियम पर है।
क्योंकि और तो टिकने की कोई जगह नहीं होती, सिर्फ नियम ही होता है।
दो आदमी ताश खेल रहे हैं। तो रूल्स होते हैं, नियम होते हैं, जिनसे चलना पड़ता है। क्योंकि खेल में और तो कुछ है ही नहीं, सिर्फ नियम के ही आधार पर तो सारा मामला है। अगर दो ताश के खेलने वाले एक नियम को न मानते हों, खेल बंद हो जाएगा। खेल टिकता ही नियम पर है।
इसलिए आप खयाल रखें, अगर आप अपने काम-धंधे में बेईमानी करते हैं, तो कोई आपकी इतनी निंदा नहीं करेगा। लेकिन अगर आप ताश खेलते वक्त बेईमानी करें और नियम का उल्लंघन करें, तो सभी आपकी निंदा करेंगे। खेल में अगर कोई बेईमानी करे, तो बहुत निंदित हो जाता है, क्योंकि वह तो खेल का आधार ही खींच रहा है। खेल का आधार ही नियम है।
इस जगत में इतनी नियमबद्धता इसीलिए है कि यह परमात्मा का खेल है। और चूंकि उसी का खेल है, उसी को नियम पालने हैं। अपना खेल वह बंद भी कर सकता है। अगर वह नियम नहीं मानता है, तो खेल अभी बंद हो जाता है।
मगर उसके अलावा कोई है भी नहीं, अपने ही नियम हैं, अपना ही मानना है। इसीलिए इतनी नियमबद्धता है। इस नियमबद्धता का कारण यह नहीं है कि जगत में कोई प्रयोजन है। जहां प्रयोजन हो, वहां तो बिना नियम के भी चल सकता है। क्योंकि प्रयोजन ही काम करवा लेगा। लेकिन जहां प्रयोजन न हो, वहां तो नियम ही सब कुछ है। क्योंकि भविष्य तो कुछ भी नहीं है, आगे तो 'कुछ' भी नहीं है पाने को । नियम ही एकमात्र आधार है।
छोटे बच्चे भी खेल खेलते हैं, तो नियम बना लेते हैं। सारे खेल | नियम पर खड़े होते हैं। नियम के बिना खेल असंभव है। ये सारे खेल जो हम चारों तरफ देख रहे हैं, नियम पर खड़े हैं। इसलिए विज्ञान नियम की खोज कर पाता है। इसे थोड़ा समझ लें।