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________________ ॐ अचुनाव अतिक्रमण है | तो भी आप आप नहीं रह जाएंगे, मिट्टी हो जाएंगे। आपके भीतर | | है। और ऐसे विकास होता है। भी शरीर और आत्मा का एक द्वंद्व है। उस द्वंद्व के तनाव में विपरीत मार्क्स ने इसी विचार के आधार पर समाज की व्याख्या की। ईंटों के बीच ही आपका अस्तित्व है। जहां भी खोजेंगे, वहां पाएंगे और उसने कहा कि गरीब और अमीर का द्वंद्व है। इस द्वंद्व से, इस कि विरोध है। . द्वंद्व के पार समाजवाद का जन्म होगा। राम के अकेले होने का कोई उपाय नहीं है। रावण का होना लेकिन मार्क्स अपने ही विचार को बहुत दूर तक नहीं खींच सका। एकदम जरूरी है। और रावण हमें कितना ही अप्रीतिकर लगे, अगर यह सच है कि विकास द्वंद्व से होता है, तो समाजवाद के पैदा कितना ही हम चाहें कि वह न हो, लेकिन हमें पता नहीं कि रावण | | होते ही समाजवाद के विपरीत कोई धारा तत्काल पैदा हो जाएगी। के न होते ही राम के होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। थोड़ा सोचें, लेकिन मार्क्स को यह हिम्मत नहीं पड़ सकी कि वह कहे कि रावण को हटा लें राम की कथा से। तो रावण के हटाते ही राम में | | समाजवाद के विपरीत भी कोई धारा पैदा होगी। उसने पुराने जो भी महत्वपूर्ण है, तत्क्षण गिर जाएगा। वह तो रावण की विपरीत | इतिहास में तो द्वंद्व को देखा, कामना की कि भविष्य में कोई द्वंद्व ईंट के कारण ही राम की प्रखरता है। राम को हटा लें, तो रावण | | नहीं होगा, और साम्यवाद सदा बना रहेगा, उसका कोई विरोध नहीं व्यर्थ हो जाएगा। होगा! वह अपने विचार के प्रति अति मोह के कारण। जैसे मां सारे जीवन का चक्र द्वंद्व के आधार पर है। यह जो द्वंद्व है, यह अपने बेटे को नहीं चाहती कि वह मरे, जानते हुए कि सभी मरते जिस दिन शांत हो जाता है, उस दिन हम संसार के बाहर हो जाते हैं। | हैं, उसका बेटा भी मरेगा। विचारक भी अपने विचार से अति जिस क्षण यह द्वंद्व शांत होता है, उस क्षण अद्वैत में प्रवेश होता है। | मोहग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन अद्वैत जीवन नहीं है। अद्वैत ब्रह्म है। अद्वैत जीवन इसलिए | | इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं हो सकता, जिसका विरोध न हो। नहीं है कि वहां कोई मृत्यु नहीं है। जहां मृत्यु नहीं है, वहां जीवन का विरोध होगा ही। विरोध ही गति है, इस जगत का प्राण है। यहां कोई अर्थ नहीं होता। जहां हार हो सकती है, वहां विजय का कोई निर्विरोध कोई बात नहीं हो सकती। मूल्य है। जहां मिटना हो सकता है, वहां होने का कोई अर्थ है। जिन्होंने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि उस परम एकाकार का जब हमारे सारे शब्द संसार के हैं। इसलिए जो भी हम कहें भाषा में. अनभव होगा. तो दोनों द्वंद्व मिल जाएंगे या दोनों द्वंद्रों के अतीत उसका विपरीत होगा ही। उस विपरीत को हम कितना ही भुलाने की | चला जाता है व्यक्ति? कोशिश करें, उसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। हम कितना ही दोनों बातें एक ही हैं। जहां द्वंद्व मिलते हैं, वहां एक-दूसरे को काट छिपाएं, वह छिपेगा नहीं। इस पहली बात को ध्यान में ले लेना | देते हैं। जैसे ऋण और धन अगर मिल जाएं, तो दोनों कट जाते हैं। जरूरी है। संसार का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। जहां दोनों द्वंद्व मिलते हैं, वहां उनकी दोनों की शक्ति एक-दूसरे को और संसार की सारी गति द्वंद्व से होती है। काट देती हैं और द्वंद्व शून्य हो जाता है। वही शून्यता पार होना भी जर्मन विचारक हीगल ने पश्चिम की विचारधारा में | | है, वही ट्रांसेंडेंस भी है, वहीं आदमी पार भी हो जाता है। डायलेक्टिक्स को जन्म दिया। उसने पहली दफा पश्चिम में यह | | जब तक आपका जीवन से मोह है, तब तक मृत्यु से भय रहेगा। विचार प्रस्तुत किया कि जीवन की सारी गति द्वंद्व से है। और जहां | | अगर जीवन का मोह छूट जाए, मृत्यु का भय भी तत्क्षण छूट द्वंद्व है, वहां गति होगी। और जहां गति है, वहां द्वंद्व होगा। और जाएगा। जहां जीवन का मोह नहीं, मृत्यु का भय नहीं, वहां आप जहां गति नहीं होगी, वहां द्वंद्व समाप्त हो जाएगा। या द्वंद्व बंद हो | पार निकल गए। वहां आप उस जगह पहुंच गए, जहां द्वंद्व नहीं है। जाए, तो गति समाप्त हो जाएगी। लेकिन हम तो ईश्वर की भी बात करते हैं, तो हमारी भाषा का हीगल के ही विचार को कार्ल मार्क्स ने नया रूप देकर | | द्वंद्व प्रवेश कर जाता है। हम कहते हैं, ईश्वर प्रकाश है। हम डरेंगे कम्यूनिज्म को जन्म दिया। क्योंकि हीगल ने कहा था, वाद पैदा | कहने में कि ईश्वर अंधकार है। क्योंकि हमारी आकांक्षा हमारे शब्द होता है, तो तत्क्षण विवाद पैदा होता है; थीसिस, एंटी-थीसिसः | की निर्मात्री है। हम चाहते हैं कि ईश्वर प्रकाश हो। तो अंधेरे को और दोनों मिलकर सिंथीसिस बन जाता है. समन्वय बनता है। लेकिन समन्वय फिर वाद हो जाता है, फिर उसका प्रतिवाद होता। हम कहते हैं, ईश्वर अमृत है, परम जीवन है। हम यह कहने की हम छोडद 315
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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