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8 गीता दर्शन भाग-
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हिम्मत नहीं जुटा पाते कि ईश्वर परम मृत्यु है, महामृत्यु है। हम आपके मन में कोई चुनाव न हो कि जीवन ही रहे, मृत्यु न रहे। आप
चुनते हैं शब्द भी, तो हमारा मोह! हम चाहते हैं, कहीं भी मृत्यु न | | दोनों के लिए राजी हो जाएं। जो हो, उसके लिए आपकी पूरी की हो। तो हम ईश्वर के लिए अमृत का उपयोग करते हैं। पूरी तथाता, एक्सेप्टिबिलिटी हो, स्वीकार हो, तो आप संन्यस्त हैं।
हम कहते हैं, ईश्वर सच्चिदानंद है। यह भी हमारा मोह है। हम फिर आप मकान में हैं, दुकान में हैं, बाजार में हैं कि हिमालय पर नहीं कह सकते कि ईश्वर परम दुख है, हम कहते हैं, परम सुख हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके भीतर चुनाव खड़ा न हो, है। द्वंद्व में से एक को चुनते हैं। वहां भूल हो जाती है। ईश्वर च्वाइसलेसनेस। सुख-दुख दोनों का मिल जाना है। और जहां सुख-दुख मिल जाते कृष्णमूर्ति निरंतर च्वाइसलेसनेस, चुनावरहितता की बात करते हैं, एक-दूसरे को काट देते हैं। उस घड़ी को हम जो नाम देंगे, वह | | हैं। वह चुनावरहितता यही है। दो के बीच कोई भी न चुनें। नाम सुख नहीं हो सकता।
जैसे ही आप दो के बीच चुनाव बंद करते हैं, दोनों गिर जाते हैं। इसलिए हमने आनंद चुना है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं |
| | क्यों? क्योंकि आपके चुनाव से ही वे खड़े होते हैं। और जटिलता है। सुख के विपरीत दुख है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं है। | यह है कि जब आप एक को चुनते हैं, तब अनजाने आपने दूसरे हालांकि आप जब भी आनंद की बात करते हैं, तो आपका अर्थ | को भी चुन लिया। जब मैं कहता हूं, मुझे सुख ही सुख चाहिए, सुख होता है। वह अर्थ ठीक नहीं है। या होता है महासुख, वह भी | तभी मैंने दुख को भी निमंत्रण दे दिया। जो सुख की मांग करेगा, अर्थ ठीक नहीं है। आपके आनंद की धारणा में सुख समाया होता | वह दुखी होगा। उस मांग में ही दुख है। जो सुख की मांग करेगा, है और दुख अलग होता है, वह ठीक नहीं है।
वह अगर सुख न पाएगा, तो दुखी होगा। अगर पा लेगा, तो भी आनंद की ठीक स्थिति का अर्थ है, जहां सुख और दुख मिलकर | दुखी होगा। क्योंकि जो सुख पा लिया जाता है, वह व्यर्थ हो जाता शून्य हो गए। एक-दूसरे को काट दिया उन्होंने। एक-दूसरे का | है। और जो सुख नहीं पाया जाता, उसकी पीड़ा सालती रहती है। निषेध हो गया। जहां दोनों नहीं रहे।
| जैसे ही हम चनते हैं एक को. दसरा भी आ गया पीछे के द्वार इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्योंकि से। और हम चाहते हैं कि दूसरा न आए। इसीलिए हम चुनते हैं कि आनंद से हमारे सुख का भाव झलकता है। तो बुद्ध ने कहा, शांति, | दूसरा न आए। हम चाहते हैं, यश तो मिले, अपयश न मिले। परम शांति। सब शांत हो जाता है, द्वंद्व शांत हो जाता है। इसे चाहे | प्रशंसा तो मिले, कोई अपमान न करे। लेकिन जो प्रशंसा चाह रहा हम कहें दो का मिल जाना, चाहे हम कहें दो के पार हो जाना, एक है, उसने अपमान को बुलावा दे दिया। अपमान मिलेगा। अपमान ही बात है।
तो केवल उसी को नहीं मिलता है, जिसने मान को चुना नहीं। जीवन में जहां भी आपको द्वंद्व दिखाई पड़े, चुनाव मत करना। | जिसने मान को चुना, उसे अपमान मिलेगा। जो चुनाव करता है, वह गृहस्थ है। जो चुनाव नहीं करता, वह ___ जरूरी नहीं है कि आप मान को न चुनें, तो कोई आपको गाली संन्यस्त है।
| न दे। दे, लेकिन आपके पास गाली गाली की तरह नहीं पहुंच इस बात को थोड़ा समझ लें।
सकती है। यह दूसरे देने वाले पर निर्भर है कि वह फूल फेंके कि दुख है, सुख है, तत्क्षण हमारा मन चुनाव करता है कि सुख | | पत्थर फेंके। लेकिन आपके पास अब पत्थर भी नहीं पहुंच सकता, चाहिए और दुख नहीं चाहिए। जन्म है और मृत्यु है, तत्क्षण हमारा | फूल भी नहीं पहुंच सकता। वह तो फूल मुझे मिले, इसलिए पत्थर मन कहता है, जन्म ठीक, मृत्यु ठीक नहीं है। मित्र हैं, शत्रु हैं, | पहुंच जाता था। फूल ही मेरे पास आए, इसलिए पत्थर भी निमंत्रित हमारा मन कहता है, मित्र ही मित्र रहें, शत्रु कोई भी न रहे। यह हो जाता था। जैसे ही आप चुनाव छोड़ देते हैं, आप जगत के बीच चुनाव है, च्वाइस है। और जहां चुनाव है, वहां संसार है। क्योंकि भी जगत के बाहर हो जाते हैं। आपने दो में से एक को चुन लिया। और दो ही अगर आप एक यह जो चुनावरहितता है, यह संन्यास की गुह्य साधना है, साथ चुन लें, तो कट जाएंगे दोनों।
आंतरिक साधना है। संन्यास है मार्ग, दो के पार जाने का। संसार अगर आप मान लें कि मित्र भी होंगे, शत्रु भी होंगे, और आपके है द्वार, दो के भीतर जाने का। मन में कोई रत्तीभर चुनाव न हो कि मित्र ही बचें, शत्रु न बचें। तो जितना आप ज्यादा चुनेंगे, उतने आप उलझते चले जाएंगे।
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