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________________ अचुनाव अतिक्रमण है जितना आप मांग करेंगे, उतने आप परेशान होते चले जाएंगे। जितना आप कहेंगे, ऐसा हो, और ऐसा न हो, उतनी ही आपकी चित्त-दशा विक्षिप्त होती चली जाएगी। जितना आप चुनाव क्षीण करते जाएंगे और आप कहेंगे, जैसा हो, मैं राजी हूं। जो भी हो, मैं राजी हूं। जैसा भी हो रहा है, उससे विपरीत की मेरी कोई मांग नहीं है। जीवन मिले तो ठीक, और मृत्यु मिल जाए तो ठीक। दोनों के साथ मैं एक-सा ही व्यवहार करूंगा। मैं कोई भेद नहीं करूंगा। जैसे ही आपके भीतर यह तराजू समतुल होता जाएगा, वैसे ही वैसे द्वंद्व क्षीण होगा और आप अद्वैत में, निर्द्वद्व में प्रवेश कर जाएंगे। अर्जुन ऐसी ही घड़ी में खड़ा है, जहां उसके भीतर, वह जो संसार था, खो गया है। वह चुनावरहित हो गया है। इस चुनावरहित होने के लिए बहुत उपाय हैं। एक उपाय साधक का है, योगी का है। वह चेष्टा कर-करके चुनाव को छोड़ता है । एक उपाय भक्त का है, प्रेमी का है। वह चेष्टा कर-करके नहीं छोड़ता । वह नियति को स्वीकार कर लेता है, भाग्य को स्वीकार कर लेता है, वह राजी हो जाता है। 'यह कृष्ण के पास जो अर्जुन खड़ा है, अर्जुन का यह खड़ा होना, एक भक्त का खड़ा होना है, एक समर्पित चेतना का । (श्रोताओं के बीच शोरगुल । कुछ उपद्रव की कोशिशें भगवान बोले, उनकी चिंता न करें। जिस द्वंद्व की मैं बात कर रहा हूं, वही है । उसकी कोई चिंता न करें। वह रहेगा। उससे कोई बचने का उपाय नहीं हैं। उसमें चुनाव न करें। शांत बैठे रहें।) कृष्ण के सामने अर्जुन की जो दशा है, वह किसी साधक की नहीं है, वह कोई साधना नहीं कर रहा है, वह कोई योग नहीं साध रहा है। लेकिन कृष्ण के प्रेम में समर्पित हो गया है। वह एक गहरी समर्पण की भाव- दशा है। उसने छोड़ दिया सब कृष्ण पर । छोड़ने का अर्थ है, अब मेरा कोई चुनाव नहीं है। समर्पण का अर्थ है, अब मैं न चुनूंगा, अब तुम्हारी मर्जी ही मेरा जीवन होगी। अब जो तुम चाहोगे, अब जो तुम्हारा भाव हो, मैं उसके लिए बहने को राजी हूं। अब मैं तैरूंगा नहीं। एक तो आदमी है, नदी में तैरता है। वह कहता है, उस किनारे, उस जगह मुझे पहुंचना है। एक आदमी है, नदी में बहता है। वह कहता है, कहीं मुझे पहुंचना नहीं । नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरी मंजिल है। अगर नदी बीच में डुबा दे, तो वही मेरा किनारा है। मुझे कहीं पहुंचना नहीं, नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरा लक्ष्य है। यह समर्पित, सरेंडर्ड भक्त का लक्षण है। अर्जुन ऐसी दशा में है। वह कह रहा है, मैंने छोड़ा, अब मैं | तैरूंगा नहीं। मैंने तैरकर देख लिया; सोचकर, विचारकर देख लिया। अब मैं छोड़ता हूं; अब मैं बहूंगा। अब कृष्ण, तुम्हारी नदी मुझे जहां ले जाए। जो भी हो परिणाम, और जो भी हो मंजिल, या न भी हो, तो जहां भी मैं पहुंच जाऊं, जहां तुम पहुंचा दो, मैं उसके लिए राजी हूं। यह अचुनाव है। च्वाइस समाप्त हो गई। चुनाव समाप्त हो गया। इस चुनाव के समाप्त होने के कारण ही अर्जुन निर्द्वद्व हो सका और अद्वैत की उसे झलक मिल सकी। एक और मित्र ने पूछा है कि क्या गीता स्वयं में पर्याप्त नहीं है, | जो आप उसकी इतनी लंबी व्याख्या कर रहे हैं? और शब्दों से दबी हुई आज की मनुष्य-सभ्यता के लिए आप गीता को इतना विस्तृत रूप दे रहे हैं, इसके पीछे क्या कारण है? गीता तो अपने में पर्याप्त है। लेकिन आप बिलकुल बहरे हैं। गीता तो पर्याप्त से ज्यादा है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन आप उसे सुन भी न पाएंगे, आप उसे पढ़ भी न पाएंगे। वह आपके भीतर प्रवेश भी न पा सकेगी। बुद्ध की आदत थी कि वह एक बात को हमेशा तीन बार कहते थे। तीन बार ! छोटी-मोटी बातों को भी तीन बार कहते थे । आनंद ने एक दिन बुद्ध को पूछा कि आप क्यों तीन-तीन बार किसी बात को कहते हैं? और छोटी-मोटी बात को भी आप तीन बार क्यों दोहराते हैं ? सुन लिया ! बुद्ध ने कहा कि तुम्हें भ्रम होता है कि तुमने सुन लिया। तीन बार कहना पड़ता है, तब भी पक्का नहीं है कि तुमने सुना हो। क्योंकि सुनना बड़ी कठिन बात है। सुन केवल वही सकता है, जो भीतर विचार न कर रहा हो। जब आप भीतर विचार कर रहे होते हैं, तो जो आप सुनते हैं, वह कहा गया हुआ नहीं है । वह तो आपके विचारों ने तोड़ लिया, बदल दिया, नई शक्ल दे दी, नया ढंग दे दिया, नया अर्थ हो गया। 317 तो जब मैं कुछ कह रहा हूं, तो आप वही सुनते हैं जो मैं कह रहा हूं, ऐसी भ्रांति में न पड़ें। आप वही सुनते हैं, जो आप सुन सकते हैं, सुनना चाहते हैं। और आप जो सुनते हैं, वह आपकी व्याख्या हो जाती है। तो गीता तो पर्याप्त है। लेकिन आपके लिए ऐसा अवसर खोजना जरूरी है, जब कि गीता आपके ऊपर हैमर की जा सके, | हथौड़ी की तरह आपके सिर पर ठोंकी जा सके। इसलिए इतनी | लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। फिर भी कोई पक्का भरोसा नहीं है
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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