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________________ 03 गीता दर्शन भाग-500 कि आपको सुनाई पड़ जाएगी। | आस्था, भरोसा, विश्वास, ट्रस्ट। आज मन का आधार नहीं है फिर दूसरा कारण भी है। जिस दिन गीता निर्मित हुई, उस दिन श्रद्धा पर। आज आस्था आधार नहीं है। आज ठीक विपरीत आधार के आदमी और आज के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर पड़ | है, संदेह, डाउट। उसका कारण है। क्योंकि विज्ञान की सारी की गया है। रोज अंतर पड़ जाता है। शब्द पुराने हो जाते हैं। जैसे वस्त्र | | सारी खोज संदेह पर खड़ी होती है, डाउट पर खड़ी होती है। विज्ञान पुराने हो जाते हैं, जैसे शरीर पुराने हो जाते हैं, ऐसे शब्द पुराने हो | | चलता ही संदेह करके है। विज्ञान खोजता ही संदेह करके है। और जाते हैं। और पुराने शब्दों की पकड़ हम पर खो जाती है। उनको | | जो संदेह नहीं कर सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। सुन-सुनकर हम बहरे हो जाते हैं। फिर उस अर्थ को बाहर खींचकर । इसलिए जिसे वैज्ञानिक होना है, उसे संदेह की कला सीखनी ही नए शब्द देने की हर युग में जरूरत पड़ जाती है। पड़ेगी। सारी दुनिया को हम विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं। हर बच्चा सत्य तो कभी बासा नहीं होता, लेकिन शब्द सदा बासे हो जाते | | विज्ञान में दीक्षित हो रहा है। इसलिए हर बच्चे के मन में संदेह हैं। आत्मा तो कभी पुरानी नहीं पड़ती, लेकिन शरीर पुराने पड़ जाते | | प्रवेश कर रहा है। और जरूरी है। विज्ञान की शिक्षा ही बिना संदेह हैं। जब आप बूढ़े हो जाएंगे, आपका शरीर पुराना पड़ जाएगा। फिर | के हो नहीं सकती। विज्ञान का आधार ही संदेह है। सोचो। पूछो। आपकी आत्मा को नया शरीर ग्रहण कर लेना पड़ेगा। | तब तक मत मानो, जब तक कि प्रमाण न मिल जाए, तब तक गीता बहुत पुरानी हो गई है। और युग-युग में जरूरत है कि रुको। मानने की जल्दी मत करो। उसको नई देह मिल जाए, नए शब्द, नए आकार मिल जाएं। हमने | | | धर्म का आधार बिलकुल विपरीत है। धर्म का आधार है, इस मुल्क में इसकी बड़ी गहरी कोशिश की है। और इसके परिणाम | | चुपचाप, सहज, स्वीकार कर लो। पूछो मत। पूछना ही बाधा हो हुए। अगर हम दूसरे मुल्कों को देखें, तो खयाल में आ जाएगी बात। | जाएगी। तो पांच हजार साल पहले विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं सुकरात ने कुछ कहा, वह बहुत कीमती है। लेकिन फिर उस पर था। आदमी का मन धार्मिक था। गीता में जो कहा गया है, वह कभी व्याख्या नहीं की गई। फिर उस पर कोई व्याख्या नहीं हुई; वह | सीधा भीतर प्रवेश कर जाता। संगृहीत है। लेकिन हमने इस मुल्क में एक अनूठा प्रयोग किया। आज आदमी का मन धार्मिक बिलकुल नहीं है, वैज्ञानिक है। और वह अनूठा प्रयोग यह था, कृष्ण ने गीता कही, अर्जुन ने सुनी। विज्ञान बुरा है, यह मैं नहीं कह रहा हूं, या धर्म अच्छा है, यह भी फिर बार-बार शंकर होंगे, रामानुज होंगे, निंबार्क होंगे, वल्लभ नहीं कह रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होने के लिए होंगे. फिर से व्याख्या करेंगे। संदेह अनिवार्य है, और धार्मिक होने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। शंकर क्या कर रहे हैं? वे जो शब्द पुराने पड़ गए हैं, उनको उन दोनों के यात्रा-पथ बिलकुल अलग हैं, विपरीत हैं। हटाकर नए शब्द रख रहे हैं। आत्मा को नए शब्दों में प्रवेश दे रहे तो सारी दुनिया का मन आज विज्ञान की तरफ आंदोलित हो रहा हैं, ताकि शंकर के युग के कान सुन सकें और शंकर के युग का | | है। इसलिए धर्म की जो बात है, उससे और आज के मन का कोई मन समझ सके। लेकिन अब तो शंकर भी पुराने पड़ गए। और तालमेल नहीं है, कोई हार्मनी नहीं है; कोई संगति नहीं बैठती; कोई हमेशा बात पुरानी पड़ जाएगी; शब्द तो पुराने पड़ ही जाएंगे। मैं | संबंध नहीं जुड़ता। आदमी जा रहा है विज्ञान की तरफ; उसकी पीठ जो कह रहा हूं, वह थोड़े दिन बाद पुराना हो जाएगा। जरूरत होगी | है श्रद्धा की तरफ। तो पीठ की तरफ से जो भी सुनाई पड़ता है, वह कि फिर अर्थ को शब्द से छुटकारा करा दिया जाए। समझ में नहीं आता। ___ व्याख्या का अर्थ है, अर्थ को, आत्मा को, शब्द से मुक्ति | | दो ही उपाय हैं, या तो आदमी को मोड़कर श्रद्धा की तरफ खड़ा दिलाने की कोशिश। वह जो शब्द उसे पकड़ लेता है, उसे हटा किया जाए, जो कि अति कठिन हो गया है। अति कठिन है, क्योंकि दिया जाए, नया ताजा शब्द दे दिया जाए, ताकि आप नए ताजे शब्द | | एक दिन में किसी का चित्त मोड़ा नहीं जाता। और अब तो वैज्ञानिक को सुन सकें। मन रोज बदल जाता है। और मन के बदलने के साथ | | कहते हैं कि पहले सात वर्षों में बच्चे को जो शिक्षण मिल जाता है, मन के पकड़ने, समझने के ढंग बदल जाते हैं। वह फिर जीवनभर पीछा करता है; फिर बदलना बहुत मुश्किल है। इसे थोड़ा समझ लें। वैज्ञानिक कहते हैं कि चौदह वर्ष में बच्चे की बुद्धि करीब-करीब आज से पांच हजार साल पहले मन का आधार था, श्रद्धा, | | परिपक्व हो जाती है। चौदह वर्ष के बाद फिर बुद्धि में कोई बहुत 318
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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