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ॐ गीता दर्शन भाग-50
दुख कौन जानेगा? और पति के प्रेम में तू आनंदित थी, तो पति के लेकिन सुख-दुख तो हमारी समझ में आ जाते हैं। जब कोई आ विरह में दुखी कोई और होगा? वह नियति का हिस्सा है। जिसके | जाता है, कहता है, शांत-अशांति। तो लगता है, यह कोई दूसरी साथ हमने सुख पाया, उसके अभाव में दुख पाएगा कौन ? तुझे ही | | बात कर रहा है। बात वही है। वही के वही सिक्के हैं। नाम बदल पाना होगा। इसमें बंटवारा नहीं हो सकता कि सुख तो मैं पा लूं और | गए हैं। दुख न पाऊं। वह तो चुन लिया तूने। जिस दिन पति के साथ रहकर आप शांति चाहते हैं। आप शांति चाहते हैं, इसलिए आपको सुख पाया था, उसी दिन यह दुख भी निर्धारित हो गया। यह दुख | अशांत होना पड़ेगा। क्योंकि वह दूसरा हिस्सा कौन स्वीकार करेगा? कौन पाएगा? तू रो। छाती पीट।
आप शांति पा लेंगे, तो अशांति कौन पाएगा? आधा हिस्सा कहां उसने कहा, आप ऐसी सलाह देते हैं। मुझे तो जितने बुद्धिमान जाएगा? और सिक्के के दो पहलू अलग नहीं किए जा सकते। आदमी मिले, सब प्रशंसा करते हैं। मैंने कहा, वे ही तेरे हिस्टीरिया आप अशांति को भी राजी हो जाएं, अगर शांति चाहते हैं। तो के जन्मदाता हैं, वे बुद्धिमान आदमी जो तुझे मिले! जब तू पति के | दोनों को राजी हो जाएं। दोनों के लिए राजी होने में ही क्रांति घट पास सुखी हो रही थी, तब उन बुद्धिमानों ने तुझे नहीं कहा था कि जाती है। क्योंकि साधारणतया मन दोनों के लिए राजी नहीं होता, सुखी मत हो। अगर तूने सुख रोक लिया होता उस वक्त, तो अभी एक के लिए राजी होता है। मन की तरकीब यह है कि आधे को दुख भी न होता। लेकिन एक कदम उठा लिया, दूसरा उठाना ही पकड़ो, आधे को छोड़ो। यही मन का द्वंद्व है, यही उसका कष्ट है। पड़ेगा। तू दुखी हो ले, नहीं तो तू पागल हो जाएगी। जब आप दोनों के लिए राजी हो गए, आप मन के पार हो गए। या
वह मेरी बातें सुनते समय ही फूट पड़ी। उसकी आंखों से आंसू दोनों को छोड़ दें, या दोनों को पकड़ लें, दोनों एक ही बात है। बहने लगे। उसने रोना शुरू कर दिया। वह आई थी, तब एक पहाड़ इसलिए जगत में दो उपाय हैं, दो विधियां हैं। परम अनुभूति के का बोझ उसके मन पर था, लौटते वक्त वह हल्की हो गई थी। | पाने की दो विधियां हैं। एक, दोनों को छोड़ दें—यह संन्यासी का उसने मुझे कहा, तो मैं हृदय भरकर रो सकती हूं? मार्ग है। दोनों को पकड़ लें-यह गृहस्थ का मार्ग है। दोनों का
रोना ही चाहिए। हृदय भरकर रो ले। और लड़ मत। दुख आया परिणाम एक है। क्योंकि मन की तरकीब है, एक को पकड़ना और है, उसे स्वीकार कर ले। और ठीक से दुखी हो ले, ताकि दुख एक को छोड़ना। दोनों को छोड़ें, तो भी मन छूट जाता है। दोनों को निकल जाए।
पकड़ लें, तो भी मन छूट जाता है। क्योंकि मन आधे के साथ जी उसकी अभी मुझे खबर मिली है कि वह हल्की हो गई है। फिट सकता है। बंद हो गए हैं। उसने रो लिया; हृदय भरकर दुखी हो ली। उसने ये दो उपाय हैं। या तो दोनों छोड़ दें-सुख भी, दुख भी; शांति स्वीकार कर लिया, दुख मेरी नियति है।
भी, अशांति भी—फिर आपको कोई अशांत न कर सकेगा। या जिस चीज को हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हम पार हो जाते | दोनों पकड़ लें। दोनों पकड़ना सहज-योग है। जहां हैं...। हैं। अशांत हैं, अशांति को स्वीकार कर लें। लड़ें मत। फिर देखें, | | इन मित्र ने यही पूछा है कि घर में, संसार में रहते हुए कैसे क्या होता है। स्वीकृति क्रांतिकारी तत्व है। और जिस बात को हम | | शांति पाऊं? स्वीकार कर लेते हैं, उससे छुटकारा उसी क्षण शुरू हो जाता है। | | पहली बात, शांति पाने की कोशिश मत करें, अशांति को
हमारा उपद्रव क्या है? सुख को हम पकड़ते हैं, दुख को हम स्वीकार कर लें। आप शांत हो जाएंगे। फिर इस दुनिया में आपको पकड़ते नहीं। दुख से हम बचना चाहते हैं। सुख कहीं छूट न जाए, कोई अशांत नहीं कर सकता। इस कोशिश में होते हैं। और हमें पता नहीं कि सुख और दुख एक | अगर मैं अशांति के लिए राजी हं, तो मुझे कौन अशांत कर ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जब हम सुख को पकड़ते हैं, तब हमने | | सकेगा? अगर मैं गाली के लिए राजी हूं, तो कौन मेरा अपमान कर दुख को पकड़ लिया, वह उसी का छिपा हुआ पहलू है। तो हम सकता है? मैं गाली के लिए राजी नहीं है, इसलिए कोई मेरा उलटा काम कर रहे हैं; सुख को पकड़ना चाहते हैं, दुख को हटाना अपमान कर सकता है। मैं अशांति के लिए राजी नहीं हूं, इसलिए चाहते हैं। यह नहीं होगा। या तो दोनों को छोड़ दें, या दोनों के लिए | कोई भी अशांत कर सकता है। और जितना हम शांत होने की राजी हो जाएं। दोनों हालत में आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी। कोशिश करते हैं, उतने हम संवेदनशील हो जाते हैं।
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