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बेशर्त स्वीकार
मेरा भाग्य | मैं दुखी हूं, बात यहां पूरी हो गई।
दुख से राजी हो जाएं और फिर देखें कि दुख कैसे टिक सकता है। अशांति को स्वीकार कर लें और आप शांत हो जाएंगे। हमारी अशांति अशांति नहीं है। हमारी अशांति शांति की चाह से पैदा होती है। इसलिए जो लोग शांति के लिए बहुत आकांक्षी हो जाते हैं, उनसे ज्यादा अशांत कोई भी नहीं होता ।
रोज न मालूम कितने लोगों को इस संबंध में इस उलझन पड़ा हुआ देखता हूं। जिस दिन से आपको खयाल हो जाता है कि शांत कैसे हों, उस दिन से आपकी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि अशांति तो है ही, अब एक नई अशांति भी शुरू हो गई कि शांत कैसे हों !
और अशांत आदमी कैसे शांत हो सकता है? और अशांत आदमी पूजा भी करेगा, तो उसकी अशांति ही होगी उसकी पूजा प्रकट। और अशांत आदमी ध्यान भी करेगा, तो उसका ध्यान भी उसकी अशांति से ही निकलेगा। अशांत आदमी मंदिर भी जाएगा, तो अपनी बेचैनी को साथ ले जाएगा। अशांत गीता भी पढ़ेगा, तो करेगा क्या? अशांति से अशांति ही निकल सकती है। इसलिए आप कुछ भी करें, करेगा कौन? वह जो अशांत है, वही कुछ करेगा ।
ध्यान रहे, एक बहुत मनोवैज्ञानिक, आधारभूत नियम, कि अगर आप अशांत हैं, तो आप जो भी करेंगे, उससे अशांति बढ़ेगी। कौन करेगा ? अशांत आदमी कुछ करेगा। वह और अशांति को दुगुनी कर लेगा, तीन गुनी कर लेगा।
ऐसा समझें कि एक आदमी पागल है और वह अब ठीक होने की कोशिश कर रहा है — खुद ही । वह क्या करेगा? वह थोड़ा ज्यादा पागल हो सकता है, और कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी कोशिश भी पागलपन से ही निकलेगी। छोड़ें, पागल से शायद हमारा मन राजी न हो।
एक लोभी आदमी है, वह लोभ छोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह करेगा क्या? यह लोभ छोड़ने की कोशिश भी लोभ से ही निकलेगी। वह आदमी लोभी है। तो अगर कोई उसको विश्वास दिला दे कि अगर तू इतना दान करता है, तो स्वर्ग में तुझे भगवान के मकान के बिलकुल पास मकान मिल जाएगा। अगर यह पक्का हो जाए, तो वह दान कर सकता है। मगर यह दान लोभ से निकलेगा। स्वर्ग में जगह बिलकुल निश्चित हो जाए, यह लोभ ! तो दान कर सकता है वह। मगर यह दान लोभ के विपरीत नहीं है, लोभ का हिस्सा है।
इसलिए जिनको आप दान करते देखते हैं, यह मत समझना कि
वे लोभ से मुक्त हो गए हैं। सौ में निन्यानबे मौके पर तो यही हालत है कि यह उनका नया लोभ है। इस जमीन पर उनके लोभ का अंत नहीं हो रहा है, वह परलोक तक जा रहा है। वे यहां ही नहीं इंतजाम कर लेना चाहते हैं, मरने के बाद भी उनका लोभ फैल गया है। वे वहां भी इंतजाम कर लेना चाहते हैं ।
लोभी आदमी क्या करेगा? जो भी करेगा, वह लोभ के कारण ही कर सकता है। क्रोधी आदमी क्या करेगा? वह जो भी करेगा, क्रोध के कारण कर सकता है।
आप जो हैं, उसके रहते, आप जो भी करेंगे, वह आपसे ही | निकलेगा। और अगर नीम से पत्ता निकलेगा, तो वह कड़वा होगा। और आपसे जो पत्ता निकलेगा, वह आपका ही स्वाद वाला होगा।
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नियति का विचार यह कहता है कि आप कुछ करें मत। आप कर नहीं सकते कुछ, आप सिर्फ राजी हो जाएं। इसका प्रयोग करके देखें । अशांति आई है बहुत बार और आपने शांत होने की कोशिश की है और अब तक हो नहीं पाए हैं। इस दूसरे प्रयोग को करके देखें। अशांति आए, स्वीकार कर लें कि मैं अशांत हूं। मैं आदमी ऐसा हूं कि मुझे अशांति मिलेगी। मैंने ऐसा कर्म किया होगा कि मुझे अशांति मिल रही है। मेरी नियति में अशांति का ही पात्र हूं मैं, इसे स्वीकार कर लें। इस अशांति से रत्ती मात्र संघर्ष न करें।
क्या होगा ? जैसे ही आप स्वीकार करते हैं, अशांति तिरोहित होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि स्वीकार का भाव ही उसकी मृत्यु | बन जाता है । जिस दुख के लिए हम राजी हो गए, वह दुख कहां रहा? हम तो ऐसे लोग हैं कि सुख के लिए भी राजी नहीं हो पाते। दुख के लिए राजी होना तो बहुत मुश्किल है। लेकिन जिस बात के लिए हम राजी हो गए... ।
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अभी कुछ ही दिन पहले एक महिला मेरे पास आई। उसके पति मर गए हैं। स्वाभाविक है, दुखी हो। अभी युवा है, कोई तीस-बत्तीस साल की उम्र है। अभी शादी हुए ही दो-चार साल हुए | थे | योग्य है। पढ़ी-लिखी है । सुशिक्षित है। किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। तो समझदारी के कारण वह रोई भी नहीं। अपने को समझाया, रोका, संयम किया। लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। जिन्होंने भी देखा उसके धैर्य को दृढ़ता को, सभी ने प्रशंसा की। तीन महीने पति को मरे हो गए हैं। अब उसको हिस्टीरिक फिट अपने शुरू हो गए हैं, अब उसको चक्कर आकर बेहोशी आ जाती है।
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मैं सारी बात समझा। मैंने उससे कहा कि तू पति के मरने पर रोई | नहीं, वही उपद्रव हो गया है। पति के होने का सुख तूने जाना, तो