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________________ गीता दर्शन भाग-548 संजय उवाच और आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा तथा प्रजा के एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलि।पमानः किरीटी। । स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः बार नमस्कार-नमस्कार होवे। आपके लिए फिर भी प्रणम्य ।। ३५।। बारंबार नमस्कार होवे! अर्जुन उवाच और हे अनंत सामर्थ्य वाले, आपके लिए आगे से और पीछे स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहष्यनुज्यते च । से भी नमस्कार होवे। हे सर्वात्मन. आपके लिए सब ओर रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च से नमस्कार होवे, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब सिद्धसंघाः।। ३६ ।। संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकत्रे। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। ३७ ।। त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । एक मित्र ने पूछा है कि जीवन में छोटे-बड़े दुख के । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं कारण कभी-कभी मन अशांत, निराश और बेचैन विश्वमनन्तरूप ।। ३८॥ बन जाता है। तो संसार में ही रहकर मन सदा शांत, वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । । । प्रसन्न और उत्साहित कैसे रखें? नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।३९।। नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। नियति की जो बात हम कर रहे हैं, उसे अगर ठीक से अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोषि IUI समझ लें, तो मन शांत हो जाएगा। और कोई भी ततोऽसि सर्वः।। ४०।। उपाय मन को शांत करने का नहीं है। और सब उपाय इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन्, केशव भगवान के ऊपरी-ऊपरी हैं, उनसे थोड़ी-बहुत राहत मिल सकती है, लेकिन इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, मन शांत नहीं हो सकता। कांपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम | लेकिन नियति की बात थोड़ी कठिन है, समझ में थोड़ी मुश्किल करके, भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला- से पड़ती है। मन अशांत होता है, नियति का विचार कहेगा, उस हे अंतर्यामिन, यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और अशांति को स्वीकार कर लें। उसके विपरीत शांत होने की कोशिश प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग मत करें। मन उदास है, नियति का विचार कहेगा, उदासी को को भी प्राप्त होता है, तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं स्वीकार कर लें, प्रफुल्लित होने की चेष्टा न करें। क्योंकि असली में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार । अशांति अशांति के कारण नहीं, अशांति को दूर हटाने के विचार करते हैं। से पैदा होती है। हे महात्मन्, ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके ___ असली उदासी उदासी से नहीं, कैसे मैं प्रफल्लित हो जाऊं, इस लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें, क्योंकि हे अनंत, हे देवेश, | धारणा से, इस विचार, इस आकांक्षा से पैदा होती है। उदासी को हे जगनिवास, जो सत, असत और उनसे परे अक्षर अर्थात स्वीकार कर लें, और आप पाएंगे शीघ्र ही कि उदासी विलीन हो सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। गई है। उसकी स्वीकृति में ही उसका अंत है। . और हे प्रभो, आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं। आप इस कैसे दुखी न हों, यह न पूछे। दुखी हैं, दुख को स्वीकार कर लें। जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य | वह भाग्य। वह नियति। वह है। उससे लड़ें मत। उससे सब लड़ाई और परम धाम हैं। हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत छोड़ दें। उसके पार जाने की आकांक्षा भी छोड़ दें। उससे विपरीत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है। की मांग भी छोड़ दें। उसे स्वीकार कर लें कि यह मेरी नियति, यह 362
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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