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ध्यान की छाया है समर्पण
एक गहरी निश्चलता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाएगी। ठीक आप बच्चे के जैसी सरल चेतना में प्रवेश कर जाएंगे। मन ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। जितना नाभि के पास होंगे, उतनी देर मन ठहरा रहेगा। और जब नाभि के पास रहना आसान हो जाएगा, तो मन बिलकुल ठहर जाएगा।
मन भी चलता है, हृदय भी चलता है, नाभि चलती नहीं । मन की भी दौड़ है, विचार की भी दौड़ है, भाव की भी दौड़ है, नाभि की कोई दौड़ नहीं। अगर ठीक से समझें, तो मन भी भविष्य में होता है, हृदय भी भविष्य में होता है, नाभि वर्तमान में होती है— जस्ट इन दि मोमेंट, हियर एंड नाउ, अभी और यहीं ।
जो आदमी नाभि के पास जितना जाएगा अपनी चेतना को लेकर, उतना ही वर्तमान के करीब आ जाएगा। जैसे बच्चा नाभि जुड़ा होता है मां से, ऐसे ही एक अज्ञात नाभि के द्वार से हम अस्तित्व से जुड़े हैं। नाभि ही द्वार है।
जिन लोगों को — शायद दो-चार लोगों को यहां भी – कभी अगर शरीर के बाहर होने का कोई अनुभव हुआ हो। पृथ्वी पर बहुत लोगों को कभी-कभी, अचानक, आकस्मिक हो जाता है। अचानक लगता है कि मैं शरीर के बाहर हो गया। तो जिन लोगों कभी शरीर के बाहर होने का आकस्मिक, या ध्यान से, या किसी साधना से अनुभव हुआ हो, उनको एक अनुभव निश्चित होता है, कि जब वे अपने को शरीर के बाहर पाते हैं, तो बहुत हैरानी से देखते हैं कि उनके और उनके शरीर के बीच, नीचे पड़ा है, उसकी नाभि से कोई एक प्रकाश की किरण की भांति कोई चीज उन्हें जोड़े हुए है। पश्चिम में वैज्ञानिक उसे सिल्वर कॉर्ड, रजत-रज्जु का नाम देते हैं। जैसे हम मां से जुड़े होते हैं इस भौतिक शरीर से, ऐसे ही इस बड़े जगत, इस बड़े अस्तित्व से, इस प्रकृति या अस्तित्व के गर्भ से भी हम नाभि से ही जुड़े होते हैं। तो जैसे ही आप नाभि के निकट अपनी चेतना को लाते हैं, मन निश्चल हो जाता है।
जीसस का बहुत अदभुत वचन है— शायद ही ईसाई उसका अर्थ समझ पाए - जीसस ने कहा है कि तुम तभी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकोगे, जब तुम छोटे बच्चों की भांति हो जाओ।
लेकिन मोटे अर्थ में इसका यही अर्थ हुआ कि हम बच्चों की तरह सरल हो जाएं। लेकिन गहरे वैज्ञानिक अर्थ में इसका अर्थ होता है कि हम बच्चे की उस आत्यंतिक अवस्था में पहुंच जाएं, जब बच्चा होता ही नहीं, मां ही होती है। और बच्चा मां के सहारे
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ही जी रहा होता है। न अपनी कोई हृदय की धड़कन होती है, न अपना कोई मस्तिष्क होता; बच्चा पूरा समर्पित, मां के अस्तित्व का अंग होता है।
ठीक ऐसी ही घटना निश्चल ध्यान योग में घटती है। आप समाप्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकीभाव हो जाता है। और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं।
यह जो कृष्ण ने कहा है कि निश्चल ध्यान योग से मुझमें एकीभाव को स्थित हो जाता है, इसका ठीक वही अर्थ है, जो बच्चे और मां के बीच स्थूल अर्थ है, वही अर्थ साधक और परमात्मा के | बीच सूक्ष्म अर्थ है। इस प्रयोग को थोड़ा करेंगे, तो जो अर्थ स्पष्ट होंगे, वे अर्थ शब्दों से स्पष्ट नहीं किए जा सकते।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
और वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही आपस में मेरे प्रभाव को जाते |हुए तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं।
अब इस सूत्र का पूरा अर्थ बदल जाएगा, अगर आपने मेरी पहली बात समझी तो। क्योंकि निश्चल ध्यान योग के बाद ही इस सूत्र का अर्थ खुल सकता है, अन्यथा इस सूत्र का गलत अर्थ किया जाएगा।
गीता पर हजारों टीकाएं हैं। अधिक टीकाएं पंडितों के द्वारा हैं, जिनके पास काफी ज्ञान है, लेकिन शायद ध्यान नहीं है। इसलिए भारी विवाद है शब्दों का। सैकड़ों अर्थ किए गए हैं। स्वाभाविक है। सैकड़ों अर्थ होंगे ही। सैकड़ों मन अर्थ करेंगे, तो सैकड़ों अर्थ होंगे।
ध्यान रहे, ध्यान तो एक ही होता है, चाहे कोई भी ध्यान को उपलब्ध हो; लेकिन मन तो उतने ही होते हैं, जितने लोग होते हैं। शायद यह भी कहना कम है, क्योंकि एक आदमी के पास भी एक ही मन नहीं होता। सुबह दूसरा था, दोपहर दूसरा है, सांझ तीसरा है! शायद यह कहना भी ठीक नहीं है, एक ही आदमी के पास भी एक साथ बहुत-से मन होते हैं । अभी, एक ही साथ कई मन होते हैं। इसलिए पुराने एक मन की धारणा को मनोविज्ञान धीरे-धीरे तिलांजलि दे रहा है। मनोविज्ञान अब कहता है कि आदमी पोलीसाइकिक है, बहु- चित्तवान है। बहुत से मन हैं उसके पास, एक मन नहीं है।
तो मन से जो अर्थ किए जाएंगे, वे तो अनेक होंगे ही। अगर