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________________ 8 परमात्मा का भयावह रूप का थोड़ा हाथ है। लेकिन इतना ही भय काफी नहीं है। तो अर्जुन देख रहा है कि आदमी की तो बिसात क्या, देवता भी असली भय न तो नदियों का है, असली भय न तो पहाड़ों के कंप रहे हैं। वे भी हाथ जोड़े खड़े हैं। उनके भी घुटने टिके हैं। वे गिरने का है, असली भय न तो ज्वालामुखियों के फूटने का है, | भी प्रार्थना कर रहे हैं। वे आपका नाम लेकर उच्चारण कर रहे हैं, असली भय तो मौत का है। मौत के भय के कारण ही बाढ़ भी | स्तुति कर रहे हैं! क्यों? क्योंकि देवता भी मिटने से उतना ही डरा भयभीत करती है, ज्वालामुखी भी भयभीत करता है, गिरता पहाड़ | | हुआ है। भी भयभीत करता है। लेकिन अगर पहाड़ गिरे और आप न मरें और | बुरा आदमी ही मिटने से डरता है, ऐसा मत समझना; भला वैसे के वैसे ही वापस निकल आएं, फिर पहाड़ भयभीत नहीं करेगा। | आदमी भी मिटने से डरता है। बल्कि कई दफे तो बुरे आदमी से बाढ़ आए और कुछ न बिगाड़ पाए, पृथ्वी कंपे और आप अडिग | ज्यादा भला आदमी मिटने से डरता है। क्योंकि भले को लगता है बैठे रहें और आपका बाल भी बांका न हो, तो फिर भय नहीं होगा। | कि इतना सब भला किया और मिट गए। बुरे को लगता है, डर भी तो न तो पहाड़ों का भय है, न नदियों का भय है, न सूर्यों का क्या है! ऐसा कुछ किया भी क्या है, जिसको बचाने की जरूरत भय है, भय तो सिर्फ एक है, मौत का। उसको अगर हम ठीक से हो। मिट गए, तो मिट गए। और बुरा तो चाहेगा कि मिट ही जाएं समझें, तो एक ही भय है, मिट जाने का। मैं नहीं हो जाऊंगा। मैं तो अच्छा है, क्योंकि जो किया है, कहीं उसका फल न भुगतना नहीं बचूंगा। मेरा मिटना हो जाएगा, मैं शून्य हो जाऊंगा। ना-कुछ पड़े। भला चाहता है कि बचे, क्योंकि इतना उपद्रव किया, इतनी हो जाऊंगा। मेरी सब रेखाएं खो जाएंगी, जैसे रेत पर बनी रेखाएं, | साधना की, इतने व्रत-उपवास किए, इतनी पूजा-प्रार्थना की, और हवा का झोंका आए और मिट जाएं। ऐसा मैं नहीं हो जाऊंगा. यह मिट गए। तो इसका पुरस्कार ? तो नाहक ही जीवन गया! नथिंगनेस...। देवता भली चेतनाओं के नाम हैं, शुद्धतम चेतनाओं के नाम हैं। • सार्च ने एक किताब लिखी है, बीइंग एंड नथिंगनेस-होना और लेकिन देवता वासना के बाहर नहीं हैं। शुद्धतम चेतना है, लेकिन न होना। सारी कथा जीवन की यही है। हैं हम, और न होना हमें वासना के भीतर है। इसलिए हमने मनुष्य से देवता को एक अर्थ चारों तरफ से घेरे हुए है। और कुछ भी करें, वह कंपाता है कि आज | | में ऊपर रखा है, कि वह मनुष्य से ज्यादा शुद्धतर स्थिति है। लेकिन नहीं कल, आज नहीं कल मैं नहीं हो जाऊंगा। यह है भय। । | एक अर्थ में नीचे भी रखा है, क्योंकि अगर उसको मुक्त होना हो, निश्चित ही, इस भय से धर्म का विचार पैदा हुआ होगा। और तो उसे मनुष्य में वापस लौट आना पड़ेगा। यह खयाल में आना शुरू होगा कि अगर नहीं ही हो जाना है, तो | | मनुष्य चौराहा है। पशु होना हो, तो मनुष्य की तरफ से यात्रा जाती इसके पहले कि मैं नहीं हो जाऊं, मैं थोड़ा इसका भी तो पता लगा | | है। देवता होना हो, तो मनुष्य की तरफ से यात्रा जाती है। और अगर लूं कि क्या कुछ मेरे भीतर ऐसा भी है, जिसे दुनिया की कोई शक्ति | समस्त जीवन के पार जाना हो, तो भी मनुष्य से ही यात्रा जाती है। मिटा नहीं सकती? क्या सारी मृत्यु भी आ जाए, तो भी मेरे भीतर तो देवता एक छोर है शुद्ध होने का। इसे हम ऐसा समझें कि अगर कोई अमृत बचेगा? क्या मैं बचूंगा? सारे मिटने की घटना के बाद नैतिक आदमी सफल हो जाए पूरी तरह, तो देवता हो जाएगा। नैतिक भी क्या कुछ बच रहेगा? वह कुछ क्या है? उसको ही हम आत्मा आदमी अगर सफल हो जाए पूरी तरह, जो दस धर्मों को मानकर कहते हैं। वही सार है। जिसको मृत्यु नहीं मिटा पाती, उसका नाम चलता है, अगर सफल हो जाए पूरी तरह, अहिंसा, सत्य, आत्मा है। अपरिग्रह, अचौर्य, सब सध जाए, सारे पाप क्षीण हो जाएं और सारे अगर आपको ऐसा पता चलता हो कि जो भी आप अपने बाबत | पुण्य उसे उपलब्ध हो जाएं, तो जो हमारी अंतिम कल्पना है, वह यह जानते हैं, वह मृत्यु में मिट जाएगा, तो आप पक्का समझना, | है कि वह देवता हो जाएगा। वह शुद्धतम होगा, उसके पास शरीर आपको आत्मा का कोई पता नहीं है। अगर आपको ऐसी किसी | | नहीं होगा, सिर्फ चेतना होगी। उसके पास इंद्रियां नहीं होंगी, लेकिन चीज का अनुभव होता हो आपके भीतर जो मृत्यु में नहीं मिटेगा, | | वासना होगी। इंद्रियों के कारण वासना को जो बाधा पड़ती है, वह तो ही समझना कि आपको आत्मा का कोई अनुभव शुरू हुआ है। उसे नहीं पड़ेगी। उसकी वासना, उसकी इच्छा, पैदा होते ही पूर्ण हो आत्मा मानने की बात नहीं है, अनुभव की बात है। आत्मा मृत्यु के | जाएगी, उसी क्षण। वह सोचेगा, यह हो, वैसा हो जाएगा। उसकी विपरीत खोज है। | वासना में और वासना के पूरे होने में समय का व्यवधान नहीं होगा। 309
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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