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गीता दर्शन भाग-
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शक्तियों को अपशोषित कर लिया है। जवान आदमी को भरापन | | कितने ही ऊपर हों, कामदेव के ऊपर नहीं होते। लेकिन जब कोई मालूम पड़ता है। वह भरापन भी कुछ नहीं है, वह भरापन भी | व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो वह काम के अंतिम रूप कामवासना का ही भराव है। बूढ़े और जवान आदमी में उतना ही से ऊपर चला जाता है। फिर देवता भी नीचे पड़ जाते हैं। फिर देवता फर्क है, जितना भरी हई कारतस में और चल गई कारतस में है। और भी बद्धको नमस्कार करने आते हैं। कोई ज्यादा फर्क नहीं है। न तो जवान भरा हुआ है, न बूढ़ा खाली | बुद्ध को अंतिम क्षण में, या महावीर को अंतिम क्षण में, या है। भ्रांति उस ऊर्जा की वजह से हो रही है। भरे आदमी तो केवल वे | | जीसस को अंतिम क्षण में, जो आखिरी संघर्ष है, जो आखिरी पार ही हैं, जिनकी काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित होनी शुरू होती। | होना है, वह काम ही है। काम के जो पार हो गया, वह देवत्व के है। उन्हीं के लिए फुलफिलमेंट है, उन्हीं के लिए आप्तता है। | पार हो गया। वह फिर भगवत्ता में सम्मिलित हो गया।
जिस दिन कामवासना ऊपर की तरफ प्रवाहित होती है, उस दिन । तीन कोटियां हैं। मनुष्य हम उसे कहें, जिसकी कामवासना नीचे कामदेव हो जाती है। इसलिए शायद हम अकेली कौम हैं जमीन | की ओर बहती है। देव हम उसे कहें, जिसकी कामवासना ऊपर की पर, जिन्होंने कामवासना को भी देवता की स्थिति दी है। उसको भी ओर बहती है या भीतर की ओर बहती है। भगवान हम उसे कहें, देव कहने की हिम्मत जुटाई है। लेकिन वह रूपांतरित है; ऊपर उठ | | जिसकी कामवासना बहती नहीं-न बाहर न भीतर, न नीचे न गया है। दूसरे से संबंध छूट गया है। शक्ति अपने ही भीतर प्रवाहित ऊपर। ये तीन कोटियां हैं। होने लगी है, अपने ही अंतस्तल में। अंतर्यात्रा पर निकल गई है। इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं। भगवान कहने का कुल
कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं; समस्त जीवन के सृजन का मूल | कारण इतना है कि अब वे देव के भी पार हैं। . आधार मैं हूं।
कृष्ण कहते हैं, मैं देवताओं में कामदेव हूं। अगर देवताओं में ही और कामदेव कहने की क्या जरूरत! वे कोई और देवताओं का | | मुझे खोजना हो, तो तुम काम में खोजना। क्योंकि काम ही सृजन नाम भी ले सकते थे। देवों में कामदेव का ही नाम लेने का प्रयोजन | का मौलिक आधार है। जगत में जो भी घटता है, सुंदर, शुभ, भी है। क्योंकि कामदेव के ऊपर जो उठ जाए...। मैंने पहले | सत्य, वह सब काम की ऊर्जा का ही प्रतिफलन है। चाहे कोई गीत आपसे कहा, काम-राक्षस। ऐसा हम करें शब्द का प्रयोग, नीचे की | | पैदा होता हो सुंदर, चाहे कोई चित्र बनता हो सुंदर, और चाहे कोई तरफ बहती काम-ऊर्जा। फिर कामदेव, ऊपर की तरफ बहती हुई | व्यक्तित्व निर्मित होता हो सुंदर, वह सब काम-ऊर्जा का ही फैलाव काम-ऊर्जा। कामदेव के भी ऊपर जो उठ जाए, वह देवताओं से | * | है। इस जगत में जो भी सुंदर है और शुभ है, वह सब काम की पार हो जाता है।
| ऊर्जा की ही लहरें हैं। बाहर की तरफ बहती ऊर्जा, काम-राक्षस। भीतर की ओर बहती | | हमने ही अकेले पृथ्वी पर ऐसे मंदिर बनाए, खजुराहो, कोणार्क, हुई ऊर्जा, कामदेव। और कहीं भी बहती हुई ऊर्जा नहीं, ठहरी हुई | | जहां हमने भीतर परमात्मा को स्थापित किया और भित्ति-चित्रों पर ऊर्जा; न बाहर, न भीतर, समस्त गति को खो दिया हो ऊर्जा ने; काम के अनूठे-अनूठे चित्र खोदे। असंगत मालूम पड़ता है। ठहर गई ऊर्जा; थिर हो गई ऊर्जा; जैसे कि दीए की लौ ठहर जाए, खजुराहो के मंदिर में प्रवेश करें, तो घबड़ाहट मालूम होती है। हवा का कोई झोंका न हो; उस स्थिति में आदमी कामदेव के भी | | मंदिर, जहां प्रभु को स्थापित किया है भीतर, उसकी भित्ति, उसकी ऊपर उठ जाता है।
दीवालों पर संभोग के, मैथुन के, काम के चित्र खुदे हैं, मूर्तियां इसलिए साधक को पहले दूसरे की परेशानी रहती है कि दूसरा | निर्मित हैं! और ऐसी मूर्तियां पृथ्वी पर किसी ने कभी नहीं बनाई। खींचता है। फिर अंतिम परेशानी आती है कि स्वयं का खिंचाव है। बाप बेटी के साथ मंदिर में प्रवेश करने में घबड़ाता है। भाई भाई के उसके भी पार जाकर, द्वंद्व के पार आदमी हो जाता है। साथ जाने में डरेगा। बेटा मां के साथ मंदिर में जाने में भयभीत
जो व्यक्ति कामदेव के पार हो जाता है, वह देवताओं के पार हो । | होगा। इस भय और डर के कारण शायद हम कहेंगे कि ये मंदिर जाता है। इसलिए हमने, बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो कथाएं कहती | ठीक नहीं बने, गलत बने हैं। हैं कि समस्त देवता उनके चरणों में सिर रखकर मौजूद हुए। क्या । गांधीजी के एक भक्त थे, पुरुषोत्तमदास टंडन। उनका सुझाव हो गया बुद्ध को कि देवता उनके चरणों में सिर रखें। क्योंकि देवता, था गांधीजी को कि इन मंदिरों पर मिट्टी ढांककर इनको दाब देना
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