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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । जहां तक मांग है, वहां तक प्रभु से कोई संबंध स्थापित अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।। ४१।। नहीं होता। प्रार्थना मांग नहीं है। ज्यादा उचित हो कि यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । कहें, प्रार्थना धन्यवाद है, मांग नहीं। जो नहीं मिला है, एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये उसकी मांग नहीं है प्रार्थना; जो मिला है, उसके अनुग्रह का त्वामहमप्रमेयम् ।। ४२।। धन्यवाद है, बैंक्स गिविंग है। पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । __कुछ मांगें मत। आपकी मांग ही आपके और परमात्मा के बीच न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो में बाधा बन जाएगी। क्योंकि जब भी हम कुछ मांगते हैं तो उसका लोकत्रयेऽप्यप्रतिम्प्रभाव ।। ४३ ।। अर्थ क्या होता है? उसका अर्थ होता है, जो हम मांग रहे हैं, वह तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । परमात्मा से भी बड़ा है। पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायाहसि देव एक आदमी परमात्मा से धन मांग रहा है। उसका अर्थ हुआ कि सोढ़म।। ४४।। लक्ष्य धन है; परमात्मा तो केवल साधन है। एक आदमी सुख मांग हे परमेश्वर, सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न रहा है। उसका अर्थ हुआ कि सुख बड़ा है। परमात्मा से मिल जानते हुए, मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी, हे कृष्ण, हे | | सकता है, इसलिए परमात्मा से मांग रहे हैं। लेकिन परमात्मा केवल यादव, हे सखे, इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है; | माध्यम हो गया; परमात्मा केवल साधन हो गया। हम परमात्मा से और हे अच्युत, जो आप हंसी के लिए विहार, शय्या, आसन भी सेवा ले रहे हैं। और भोजनादिकों में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने | जब भी हम कुछ मांगते हैं, तो जो मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण है। भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप | जिससे हम मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह अगर महत्वपूर्ण अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले, आपसे मैं क्षमा कराता हूं। | मालूम होता है, तो सिर्फ इसीलिए कि जो हम चाहते हैं, वह उससे हे विश्वेश्वर, आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से | मिल सकता है। लेकिन उसका महत्व द्वितीय है, दोयम है, नंबर भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले, दो है। तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, तो परमात्मा से कुछ भी मांगा नहीं जा सकता। और जो मांगते फिर अधिक कैसे होवे। हैं, उनका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। परमात्मा को तो, जो इससे हे प्रभो, मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर | मिला है, उसके लिए धन्यवाद दिया जा सकता है। और जो मिला और प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न | है, वह बहुत है, असीम है। होने के लिए प्रार्थना करता हूं। हे देव, पिता जैसे पुत्र के __लेकिन जो मिला है, उसके लिए हम धन्यवाद नहीं देते। जो नहीं और सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के, वैसे मिला है, उसके लिए हम मांग करते हैं, शिकायत करते हैं। अभाव ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने के लिए योग्य हैं। ही हमारा मन देखता है। जो हमारे पास है, जो हमें मिला है, अकारण! जीवन, अस्तित्व, जो खिलावट हमें मिली है, उसके लिए कोई अनुग्रह नहीं है। एक मित्र ने पूछा है, प्रभु से प्रार्थना करते हैं, तो कहते | प्रार्थना अनुग्रह का भाव है। हैं कि सारे दुख मेरे मिटा दे, सुख ही सुख शेष रह | ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके जाएं। और आपने कहा कि सुख और दुख एक ही घर की हालत बड़ी बुरी थी। पिता मर गए थे। और पिता मौजी सिक्के के दो पहलू हैं। तो प्रभु से हम क्या मांगें? | आदमी थे, तो कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उलटा कर्ज छोड़ क्या प्रार्थना करें? | गए थे। और विवेकानंद को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज कैसे चुके। घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। और ऐसा अक्सर हो जाता | था कि घर में इतना थोड़ा-बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे | 378
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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